दुनिया के वे सभी धर्म जिन्होंने अपनी सारी ताकत अपनी प्राचीन धार्मिक प्रथाओं को बचने में लगा रखी है और आज भी आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक सोच से वंचित है , वे आज पीड़ित हैं और यदि नहीं बदले तो पीड़ित ही बने रहेंगे। इजराइल-फिलिस्तीनी संघर्ष इसी का पर्याय है।
रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात पश्चिम देशों में ईसाई धर्म का प्रसार हुआ और मध्ययुगीन काल में चर्चों की स्थापना के बाद लोगों को विधर्म के लिए जिंदा तक जला दिया जाता था। ईसाइयों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए अत्याचार के विषय को किसी के परिचय की आवश्यकता नहीं है। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अधिकांश पश्चिमी देशों ने अपने धार्मिक परंपराओं के कारण किये जाने वाले युद्ध की निरर्थकता को भली भांति अनुभव कर लिया और अपने समाज की दिशा को परिवर्तित करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने नैतिक मूल्य और धार्मिक विश्वास को बदला और अपने देशों को विज्ञान द्वारा एक विशाल आधुनिक सैन्य शक्ति एवं असाधारण अर्थव्यवस्था में परिवर्तित कर लिया।
उधर मध्य पूर्वी एशिया ने ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद पूरा मध्य पूर्व विभाजित हो गया। अगर आज के फिलस्तीन-इसरायल संघर्ष और विवाद को छोड़ दें तो मध्यपूर्व में भूमध्यसागर और जॉर्डन नदी के बीच की भूमि को फलीस्तीन कहा जाता था। बाइबल में फिलीस्तीन को कैन्नन कहा गया है और उससे पहले ग्रीक इसे फलस्तिया कहते थे। रोमन इस क्षेत्र को जुडया प्रांत के रूप में जानते थे। ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद फ़िलिस्तीन पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यहूदी समुदाय दो तरह से बाँट चुका था और हगना, इरगुन और लोही नाम के संगठन ब्रिटिश के विरुद्ध हिंसात्मक विद्रोह कर रहे थे। उन्नीसवी सदी के अन्त में तथा फिर बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में यूरोप में यहूदियों के ऊपर किए गए अत्याचार के कारण यूरोपीय तथा अन्य यहूदी अपने क्षेत्रों से भाग कर येरूशलम और इसके आसपास के क्षेत्रों में आने लगे। इन सब से परेशान ब्रिटिश साम्राज्य ने फिलिस्तीन के विभाजन की घोषणा की और इस क्रम में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा फिलिस्तीन के विभाजन को मान्यता दे दी गयी, जिसके अन्तर्गत राज्य का विभाजन दो राज्यों में होना था - एक अरब और दसूरा यहूदी। जबकि जेरुसलेम को संयुक्त राष्ट्र के अधीन कर दिया क्योकि , ये स्थान यहूदी ईसाई और मुस्लमान तीनो धर्मो के लिये एक विशेष स्थान रखता है और इस के बटवारे में बड़ी समस्या थी। इस व्यवस्था में जेरुसलेम को " सर्पुर इस्पेक्ट्रुम "(curpus spectrum) कहा गया ! ये यहूदियों के तीन हज़ार साल से पहले का उद्धभव का स्थान था इसलिए इस मरुभूमि को यहूदियों सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनके द्वारा इस व्यवस्था को तुरन्त मान्यता दे दी गयी। किन्तु अरब समुदाय ने इसे स्वीकार नहीं कर पाया और उसने तीन दिनों के बन्द की घोषणा की जिससे गृह युद्ध की स्तिथि बन गयी जिसकी वजह से तक़रीबन ढाई लाख फिलिस्तीनी लोगो ने राज्य छोड़ दिया। 14 मई 1948 को यहूदी समुदाय ने ब्रिटेन से पहले स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और इजराइल को राष्ट्र घोषित कर दिया,और इस बीच सीरिया, लीबिया तथा इराक ने इजरायल पर हमला कर दिया और तभी से 1948 के अरब - इजरायल युद्ध की शुरुआत हुयी। सऊदी अरब ने भी अपनी सेना भेजकर मिस्र की सहायता से आक्रमण किया और यमन भी युद्ध में शामिल हुआ। लगभग एक वर्ष के बाद युद्ध विराम की घोषणा हुयी और जॉर्डन तथा इजराइल के बीच सीमा रेखा अवतरित हुई जैसे green line (हरी रेखा) कहा गया और मिस्र ने गाज़ा पट्टी पर अधिकार कर लिए। करीब सात लाख फिलिस्तीनी इस युद्ध के दौरान विस्थापित हुए हो गए।11 मई 1949 में संयुक्त राष्ट्र ने इजरायल ने को मान्यता दे दी लेकिन फिर भी ज्यातर इस्लामिक देशों ने उसको मान्यता देने से इंकार कर दिया।
इस घटना से परेशान इजराइल को ये समझ में आ गया था कि ये अब उसके अस्तित्व का मामला था। उसने अपने अभूतपूर्व समर्पण और परिश्रम के साथ इस रेगिस्तान को कृषि भूमि में परिवर्तित करने का कार्य शुरू किया और बहुत तेजी से खुद को अत्यधिक आधुनिक सैन्य शक्ति एवं विशाल अर्थव्यवस्थाएं में परिवर्तित कर लिया। इसके विपरीत, फिलिस्तीन बिना किसी आर्थिक और सैन्य शक्ति बने, अरब और इस्लामी राष्ट्रों के समर्थन के साथ लड़ता रहा। फिलिस्तीन में 1964 में फिलिस्तीन लिबरेशन ओर्गानिज़शन (पी॰एल॰ओ॰) की स्थापना हुई जिसे १०० से अधिक राष्ट्रों ने फिलिस्तीन का एकमात्र वैधानिक प्रतिनिधि स्वीकार किया और 1974 से संयुक्त राष्ट्र संघ में पी॰एल॰ओ॰ प्रेक्षक के रूप में मान्य है। 1991 में हुए मैड्रिड सम्मेलन के पहले इजराइल और संयुक्त राज्य अमेरिका जो उसे एक आतंकवादी संगठन मानते थे उन्होंने भी इसे स्वीकार कर लिया ।
1966 में पुनः इजराइल - अरब युद्ध हुआ। 1967 में मिस्र ने जब संयुक्त राष्ट्र के अधिकारी दल को बाहर निकाल दिया और लाल सागर में इजराइल की आवागमन बन्द कर युद्ध की तैयारी कर दी तो इजराइल को इसकी पूर्व सूचना मिल गयी। इस से पहले उस पर हमला हो, इस्राईल ने अचानक जून 5, 1967 को मिस्र ,जोर्डन ,सीरिया तथा इराक के विरुद्ध युद्ध घोषित कर महज 6 दिनों में इन सारे अरब दुश्मनों को एक साथ पराजित कर पुरे क्षेत्र में अपनी सैनिक प्रभुसत्ता कायम कर ली और तेजी से फलीस्तीन के बड़े भूभाग पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया । इस युद्ध के पश्चात् भी इजराइल पर 1960 के अंत से 1970 तक पर कई हमले हुए जिसमें 1972 में इजराइल के प्रतिभागियों पर मुनिच ओलंपिक में हुआ हमला शामिल है।1973 को सिरिया तथा मिस्त्र द्वारा एक बार फिर इजराइल पर तब अचानक हमला किया गया जब इजराइली योम त्यौहार मना रहे थे, जिसके जवाब में सिरिया तथा मिस्त्र को बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ा। इन सारे हमलो में इजराइल ने अपने जीते हुए भूभाग के ऊपर कब्ज़ा कर लिया और उसे इजराइल में मिलाना शुरू कर दिया । आज जो आप इजराइल का बढ़ता हुआ क्षेत्र देखते है ये इसी का प्रभाव है।
ऑपरेशन एंतेब्बे (Operation Entebbe) -
अगर आप इस के बारे में नहीं जानते तो आप इजराइल के दुस्साहस को नहीं समझ सकते। हुआ यूँ कि 1976 में वाडी हद्दाद उर्फ़ अबू हानी जो पी॰पी एल ऍफ़ का सदस्य था ने जर्मन रिवोल्यूशनरी सेल के दो सदस्य द्वारा के साथ मिल कर तेल अवीव से पेरिस जाने वाली एयर फ्रांस एयरबस एयरलाइनर जिसमे 248 यात्री थे को हाईजैक कर लिया।अपहरणकर्ताओं का उद्देश्य इज़रायल में कैद 40 फ़िलिस्तीनी और संबद्ध उग्रवादियों को और चार अन्य देशों में 13 कैदियों को बंधकों के बदले मुक्त करना था। जहाज़ को पहले एथेंस फिर बेनगाज़ी होते हुए युगांडा के मुख्य हवाई अड्डे एंटेबे ले जाया गया जहाँ के तानाशाह ईदी अमीन जिसे शुरू से ही अपहरण की सूचना थी, ने व्यक्तिगत रूप से अपहरणकर्ताओं का स्वागत किया ।विमान से सभी बंधकों को एक अप्रयुक्त हवाई अड्डे की इमारत में ले जाने के बाद, सभी इजरायलियों और कई गैर-इजरायल यहूदियों को बड़े समूह से अलग कर उन्हें एक अलग कमरे में बंद कर दिया। अगले दो दिनों में, 148 गैर-इजरायल बंधकों को रिहा कर दिया गया और बचे हुए मुख्य रूप से 99 इजरायली और 12 सदस्यीय एयर फ्रांस चालक दल को बंधक बनाए रखा। अपहरणकर्ताओं ने बंधकों की रिहाई की मांग पूरी नहीं होने पर बंधकों को जान से मारने की धमकी दी। इस खतरे के कारण इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद द्वारा बचाव अभियान की योजना बनाई गई। इन योजनाओं में युगांडा सेना से सशस्त्र प्रतिरोध की तैयारी शामिल थी। आईडीएफ ने मोसाद द्वारा दी गई जानकारी पर अभूतपूर्व और दुस्साहस कार्रवाई की। ऑपरेशन रात में हुआ। बचाव अभियान के लिए इज़राइली परिवहन विमानों ने 4,000 किलोमीटर (2,500 मील) से अधिक 100 कमांडो को युगांडा ले जाया गया । एक हफ्ते की योजना के बाद चला यह ऑपरेशन 90 मिनट तक चला।106 बंधकों में से 102 को बचा लिया गया और तीन मारे गए। एक बंधक जो अस्पताल में था और बाद में उसे मार दिया गया। इस ऑपरेशन में पांच इजरायली कमांडो घायल और यूनिट कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल योनातन नेतन्याहू जो आज के प्रधानमत्री नेतन्याहू बेंजामिन नेतन्याहू के बड़े भाई थे, मारे गए। सभी अपहर्ता और पैंतालीस युगांडा के सैनिक मारे गए |युगांडा की वायु सेना के सोवियत निर्मित ग्यारह मिग-17 और मिग-21 को नष्ट कर दिया गया। ऑपरेशन के बाद ईदी अमीन ने मोसाद की मदद करने के लिए युगांडा में मौजूद कई सौ केन्याई का वध करने के आदेश जारी किए जिससे युगांडा में 245 केन्याई मारे गए और 3,000 भाग गए। इस सफल करवाई को ऑपरेशन एंतेब्बे (Operation Entebbe) के नाम से जाना जाता है।
भारत और इजराइल-फिलिस्तीनी
भारत ने हमेशा से इजराइल और फिलिस्तीन से बराबर के संबध बना रखे है। बल्कि भारत ने 1992 में ही जा कर इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये। फिर भी इज़राइल ने भारत को चीन युद्ध ,पाकिस्तान युद्ध , कारगिल संघर्ष और हाल के चीन संघर्ष जैसे सभी चुनौतीपूर्ण समय में हर प्रकार से समर्थन किया गया है। भारत और इजरायल-फिलिस्तीनी 971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान श्रीमती गोल्डा मायर द्वारा श्रीमती इंदिरा गाँधी से वार्ता के पश्चात् ईरान जा रहे हथियारों को भारत भेज दिया। हालांकि भारत ने इसके बावजूद उसके साथ लम्बे समय तक राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2017 में इजराइल की यात्रा की और यह किसी भारतीय प्रधान मंत्री द्वारा देश की पहली यात्रा थी।
भारत के दोनों देशों के प्रति तटस्थ होने के बावजूद दुनिया भर के मुसलमानों के साथ भारतीय मुसलमान मात्र उम्माह के नाम पर फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं ना कि यह कि वे व्यक्तिगत रूप से इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष से प्रभावित हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि दुनिया का कोई भी मुस्लिम देश या नेता कभी भी चीन के खिलाफ मुसलमानों की क्रूर अधीनता के लिए इतनी आवाज नहीं उठा पाता जितना कि वह फिलिस्तीनियों के बारे में उठाता है। मजेदार बात ये है कि मुस्लिम देशों के सरबरा संयुक्त राष्ट्र अमीरात और सऊदी अरब भी इजराइल के साथ अपने मधुर संबंध बनाए रखे है | इसी दोगलेपन का शिकार फिलिस्तीन है। दरअसल दुनिया की राजनीति केवल ताकत और पैसे की है। और इसके बल पर जो सत्ता में हैं, वे इसके साथ खेलना जानते हैं। इसी लिए वे कमजोर समाजों का उपयोग करते हैं और लाभ उठाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर पूरी इस्लामी दुनिया इसे पहचानने में विफल रही है और अपनी इन्ही विचारधारा के चक्कर में ईरान, सीरिया, इराक, जॉर्डन, मिस्र, अफगानिस्तान जैसे राष्ट्रों ने खुद को बर्बाद कर लिया और अब पाकिस्तान भी इसी कारण विनाश की राह पर है। जो इस जाल में पड़ने से बचते हैं जैसे बांग्लादेश और इंडोनेशिया,वे अब संपन्न अर्थव्यवस्था बन रहे हैं। भारत के लिए भी ये एक भीषण चेतावनी है। हमें भी सावधानी बरतनी बढ़ेगी और धार्मिक कट्टरता और उन्माद से दूर रह शिक्षा और गरीबी से निजात के लिए वैज्ञानिक सोच विकसित कर देश उत्थान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। याद रखिये हिंदू-मुसलमान का मुद्दा हमें इस्लामिक देशो के तरह पीछे ले जाएगा और इसलिए हमें बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है।
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