Tuesday, November 16, 2021

मनुर्भरत

 मनुर्भरत

हमारे पाश्चात्य गुरुओं ने हमें बचपन में पढ़ाया था कि आर्य लोग खानाबदोश गड़रियों की भाँति भद्दे छकड़ों में अपने जंगली परिवारों और पशुओं को लिए इधर से उधर भटकते फिरा करते थे। अब मैं इन सब पुरातत्त्ववेत्ताओं की इन गवेषणाओं पर हर्फ मारने की धृष्टता करता हूं। जिन सूत्रों को हाथ में लेकर मैं आगे बढ़ना चाहता हूं, उनमें इन पाश्चात्य विद्वानों के वर्णित स्थान सुषा, एलम, सप्तसिन्धु, प्रलय, और इन प्रदेशों में जातियों के आवागमन की मान्यताओं के अतिरिक्त ऋग्वेद, ब्राह्मण, विष्णु-पुराण, मत्स्यपुराण तथा अन्य पुराणों के अस्तव्यस्त-अव्यवस्थित वर्णन हैं। इन्हीं सूत्रों पर मैं इस प्रागैतिहासिक काल के कुछ धुंधले रेखाचित्र यहाँ उपस्थित करता हूँ। मैं इन आगत आक्रान्ता-समागत जनों के नाम-धाम-जाति तथा उनके और भी महत्त्वपूर्ण विवरण यहाँ उपस्थित करूँगा, जिनके मूल वक्तव्य पुराणों आदि में हैं, और जिनका समर्थन पर्शिया, अरब, अफ्रीका, मिन और अरब तथा मध्य एशिया के प्राचीन इतिहासों से होता है।

सबसे पहले मैं समय-निरूपण के सम्बन्ध में यह कहना चाहता हूँ कि पुराणों में प्राचीन समय का विभाग मन्वन्तरों की गणना के अनुसार किया गया है। मन्वन्तर को छोड़कर अतीत काल की स्थिति जानने का कोई और उपाय नहीं है। मन्वन्तर को छोड़कर अतीत काल की स्थिति जानने का कोई और उपाय नहीं है। परन्तु पुराणों में यह काल-गणना इतनी बढ़ा-चढ़ाकर की गई है कि उनकी वर्णित काल-गणना बेकार ही है। परन्तु मन्वन्तरों के कथन से हमें यह लाभ अवश्य हुआ कि वैवस्वत मनु से पहले छः मन्वन्तर मिलते हैं। इतने ही आधार को लेकर, जिसमें जो घटनाएँ वर्णित हैं, उनका पूर्वापर सम्बन्ध मिलाकर मैं उसी के आधार पर यह काल-गणना कर रहा हूं।


ईसा से कोई चार हज़ार वर्ष पूर्व भारतवर्ष के मूल पुरुष स्वायंभुव मनु उत्पन्न हुए। इनकी तीन पुत्रियां तथा दो पुत्र हुए। पुत्रों के नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। प्रियव्रत के दस पुत्र हुए। इन्हें प्रियव्रत ने पृथ्वी बाँट दी। ज्येष्ठ पुत्र अग्नीध्र को उसने जम्बूद्वीप (एशिया) दिया। इसे उसने अपने नौ पुत्रों में बांट दिया। बड़े पुत्र नाभि को हिमवर्ष-हिमालय से अरब समुद्र तक देश मिला। नाभि के पुत्र महाज्ञानी-सर्वत्यागी ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव के पुत्र महाप्रतापी भरत हुए-जिन्होंने अष्टद्वीप जय किए और अपने राज्य को नौ भागों इसके अनन्तर इस प्रियव्रत शाखा में पैंतीस प्रजापति और चार मनु हुए। चारों मनुओं के नाम स्वारोचिष, उत्तम, तामस और रैवत थे। इन मनुओं के राज्यकाल को मन्वन्तर माना गया। चाक्षुष रैवत मन्वन्तर की समाप्ति पर छत्तीसवां प्रजापति और छठा मनु, स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र उत्तानपाद की शाखा में चाक्षुष नाम से हुआ। इस शाखा में ध्रुव, चाक्षुष मनु, वेन, पृथु, प्रचेतस आदि प्रसिद्ध प्रजापति हुए। इसी चाक्षुष मन्वन्तर में बड़ी-बड़ी घटनाएँ हुई। भरत वंश का विस्तार हुआ। राजा की मर्यादा स्थापित हुई। वेदोदय हुआ।


इस वंश का प्रथम राजा वेन था। इस वंश का पृथु वैन्य प्रथम वेदर्षि था। उसने सबसे प्रथम वैदिक मन्त्र रचे। अगम भूमि को समतल किया गया। उसमें बीज बोया गया। इसी के नाम पर भूमि का पृथ्वी नाम विख्यात हुआ। इसी वंश के राजा प्रचेतस ने बहुत-से जंगलों को जलाकर उन्हें खेती के योग्य बनाया। जंगल साफ कर नई भूमि निकाली .कृषि का विकास किया। इन छहों मनुओं के काल का समय-जो लगभग तेरह सौ वर्ष का काल है-सतयुग के नाम से प्रसिद्ध है। मन्वन्तर-काल में वह प्रसिद्ध प्रलय हुई जबकि काश्यप सागर तट की सारी पृथ्वी जल में डूब गई। केवल मनु अपने कुछ परिजनों के साथ जीवित बचा।

सतयुग को ऐतिहासिक दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जाता है-एक प्रियव्रत शाखा-काल, जिसमें पैंतीस प्रजापति और पाँच मनु हुए। दूसरा उत्तानपाद शाखा-काल, जिसमें चाक्षुष मन्वन्तर में दस प्रजापति और राजा हुए।

सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस काल के दो भाग किए जाते हैं। एक प्राग्वेद काल-उन्तालीसवें प्रजापति तक; दूसरा वेदोदय काल-इसके बाद। भूमि का बंटवारा, महाजलप्रलय, वैकुण्ड का निर्माण, भूसंस्कार, कृषि, राज्य-स्थापना वेदोदय तथा भारत और पर्शिया में भरतों की विजय इस काल की बड़ी-बड़ी सांस्कृतिक और राजनीतिक घटनाएं हैं। वेदोदय चाक्षुष मन्वन्तर की सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना है। सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना पर्शिया पर आक्रमण भी इसी युग की है।

चाक्षुष मनु के पांच पुत्र थे। अत्यराति, जानन्तपति, अभिमन्यु उर, पुर और तपोरत। उर के द्वितीय पुत्र अंगिरा थे। इन छहों वीरों ने पर्शिया पर आक्रमण किया था। उस काल में पर्शिया का साम्राज्य चार खण्डों में विभक्त था, जिनके नाम सुग्द, मरु, वरवधी और निशा थे। पीछे हरयू (हिरात) और वक्रित (काबुल) भी इसी राज्य में मिल गए थे। यहाँ पर प्रियव्रत शाखा के स्वारोचिष मनु के वंशज राज्य कर रहे थे। जानन्तपति महाराज अत्यराति चक्रवर्ती कहे जाते थे। आसमुद्र क्षितीश थे। भारतवर्ष की सीमा के अन्तिम प्रदेश और पर्शिया का पूर्वी प्रान्त जो सत्यगिदी के नाम से विख्यात है, उस समय सत्यलोक कहाता था। उसी के सामने सुमेरु के निकट वैकुण्ठधाम था, जो देमाबन्द-एलबुर्ज पर्वत पर अभी तक 'इरानियन पराडाइस' के नाम से प्रसिद्ध है। देमाबन्द तपोरिया प्रान्त में है। इसी प्रान्त के तपसी विकुण्ठा और उसके पुत्र वैकुण्ठ थे। वैकुण्ठधाम उन्हीं की राजधानी थी। चक्रवर्ती महाराज अन्यराति जानन्तपति के दूसरे भाई का नाम मन्यु या अभिमन्यु था। प्राचीन पर्शियन इतिहास में उन्हें मैन्यु और ग्रीक में 'मैमनन' कहा गया है। अर्जनेम में अभिमन्यु (Aphumon) दुर्ग के निर्माता तथा ट्राय-युद्ध के विजेता यही अभिमन्यु हैं।

प्रसिद्ध पुराण-काव्य ‘ओडेसी' में इन्हीं अभिमन्यु महाराज की प्रशस्ति वर्णन की गई है। इन्होंने ही सुषा नाम की नगरी बसाई, जो सारे संसार में प्राचीनतम नगरी थी। इसका नाम मन्युपुरी था। अत्यराति के तृतीय भाई उर थे। इन्होंने अफ्रीका, सीरिया, बैबीलोनिया आदि देशों को जीता और ईसा से 2000 वर्ष पूर्व इन्हीं के वंशधरों ने अब्राहम को पददलित कर पूर्वी मिस्र में अपना राज्य स्थापित किया। इस कथा का संकेत ईसाइयों के पुराने अहदनामे में मिलता है। आज भी उर बैबीलोनिया का एक प्रदेश है। प्रसिद्ध उर्वशी अप्सरा इसी उर प्रदेश की थी। ईरान के एक पर्वत का नाम भी उरल है। उरफाउरगंज नगर है। उसका उरखेगल प्रदेश है। उरमिया प्रदेश भी है, जहां जोरास्टर का जन्म हुआ था। अफ्रीका में भी एक प्रान्त रायो-डि-ओरो है। उर-वंशियों के ईरान में-उर, पुर और वन-ये तीन राज्य स्थापित हुए।

उर के दूसरे भाई पुर थे। अब भी एलबुर्ज के निकट इनकी राजधानी पुरसिया है। इन्हीं के नाम पर ईरान का नाम पर्शिया पड़ा। पुर और उर के भाई तपोरत थे। इन्होंने 'तपोरत' नाम से अपना राज्य स्थापित किया जो अब तपोरिया प्रान्त कहाता है। वहां के निवासी अब तपोरत कहाते हैं। इस प्रदेश में वैकुण्ठ है, जो देमाबन्द पर्वत पर है। तपसी वैकुण्ठधाम थी। तपोरत के राजा आगे देमाबन्द कहाने लगे, जिन्हें हम देवराज कहते हैं। आजकल इस तपोरिया भूमि को मजांदिरन कहते हैं। जानन्तपति अत्यराति के वंशज अर्राट हैं। आरमेनिया इनका प्रान्त है। अर्राटों ने आगे असुरों से भारी-भारी युद्ध किए हैं। अर्राट पर्वत भी अत्यराति के नाम पर ही है। सीरिया का नागर अत्यरात (Adhrot) भी इन्हीं के नाम पर है। उर के पुत्र अंगिरा थे, जिन्होंने अफ्रीका को जय किया। अंगिरा-पिक्यूना के निर्माता और विजेता यही थे। अंगिरा और मन्यु की विजयों-युद्धों और अभियानों-के वर्णनों से ईरानी-हिब्रू धर्मग्रन्थ भरे पड़े हैं।

इन छहों भरतों ने ईरान पर इतना उग्र आक्रमण किया था कि वहां के सब जन और शासक उनसे अभिभूत हो गए। उनके सर्वग्राही और भयानक आक्रमण से पददलित होकर वे उन्हें अहित देव-दुःखदायी अहरिमन और शैतान कहकर पुकारने लगे। अवेस्ता में अंगिरामन्यु-अहरिमन कहा गया है। बाइबिल में उन्हें शैतान कहा गया है। मिल्टन के 'स्वर्ग-नाश' की कथा में इसी विजेता को शैतान कहा गया है। पाश्चात्य देशों के पुराण-इतिहास इन्हीं छह विजेताओं की दिग्विजय के वर्णनों से भरे हुए हैं। पाश्चात्य पुराण-साहित्य में इन्हें विकराल देव और सैटानिक होस्ट का अधिनायक कहा गया है।  

ये छहों अमर अनहितदेव की भांति ईरान के प्राचीन उपास्यदेव हो गए थे। इन्हीं की विजय-गाथा मिल्टन ने चालीस वर्ष तक गाई है। पाश्चात्य इतिहास-वेत्ता इस आक्रमण का काल ईसा से तेईस सौ वर्ष पूर्व बताते हैं। हमारा अनुमान है कि प्रलय के वर्ष पूर्व चाक्षुषों का यह आक्रमण ईरान के निवासी अपने ही भाईबन्धुओं पर हुआ था और इनके वंशधर वहीं बस गए थे। यही कारण है कि भारतीय पुराणों में इनके पूर्वजों का वंशवृक्ष तो है परन्तु इनके वंशजो का वंश विस्तार नही है । इनके वंश इन विजित उपनिवेशो के प्राचीन इतिहास में मिलता है ।

आचार्य चतुरसेन की पुस्तक वयं रक्षम: से उद्धृत

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