Friday, May 14, 2021

भाषा का भ्र्म

पहले में प्रायःअंग्रेज़ी में लिखा करता था । फिर कुछ मित्रों ने राय दी कि हिंदी में लिखा करो तो बात दूर तक जाएगी । मेरे आरंभिक पढ़ाई दरअसल बड़ी भ्रमित करने वाली रही । मेरे किंडरगार्डन से लेकर दसवीं की पढ़ाई तक पिता जी का छह बार तबादला हो चुका था तो निरंतरता का अभाव था और अंग्रेज़ी हिंदी हर माध्यम से पढ़ते आये । पिता जी 1984 में जब सेवानिवृत्त हुए तबतक बाहरवीं में पहुंच चुके थे । मेरे घर मे हिंदी से ज्यादा उर्दू का उपयोग होता था । पिता जी और माँ दोनो उर्दू और फ़ारसी माध्यम से पढ़े थे और माँ तो मेरी रामायण भी उर्दू में गाती थी और इक़बाल की बड़ी मुरीद थी । हम घर मे ही काफी उर्दू शब्दो का इस्तेमाल किया करते थे । आज भी हम अपनी कलम दवात की पूजा में उर्दू में भी 'श्री राम' लिखते है । सन 78-79 की बात है एक बार फतेहगढ़ में किसी दुकान में मैंने जारबंध मांग लिए तो हैरान दुकान के मालिक ने मुझ पूछ लिया बेटा ये कहा से सीखा और प्रसन्न होकर कुछ टॉफी भी दे दी ।
खैर माँ मेरी थोड़ी सख्त मिजाज थी और मेरे बचपन की काफी राते उनके साथ अंग्रेज़ी सीखते गुज़री ।उनके साथ सोने का मतलब ,अंग्रेज़ी की परीक्षा और अक्सर गालो पर पड़ते तमाचे । बारहवीं की पढ़ाई के बाद मैंने मद्रास की और रुख किया । मद्रास एक ऐसी जगह है जहाँ हर गली नुक्कड़ में बड़े बड़े शशि थरूर है । शब्दो का ऐसा चयन कि बिना किसी शब्दकोष के पढ़ना समझना मुश्किल । मुझे लगा कि मुझे भी अब ऐसी ही अंग्रेज़ी बोलनी और लिखनी चाहिए । मैंने बड़ी मेहनत की और कुछ सफल भी हो पाया । मैंने अंग्रेजी में शब्दो को ढूंढ ढूढ़ के लिखना शरू कर दिया । एक बार एक किसी लायंस क्लब के समारोह में मद्रास के आयकर आयुक्त ने मेरी अंग्रेजी की तारीफ कर दी और मुझे लगा कि अब और मेहनत की जानी चाहिए और कई शब्दकोष खरीद डाले । उसी बीच मैंने सुना सुधा मूर्ति को । वो कहती थी कि "वार्त्तालाप में हमेशा भाषा का इस्तेमाल इस प्रकार से होना चाहिए कि लोग आप की बात समझ सके। बहुत क्लिष्ट शब्दो के चयन से लोग आपकी तारीफ तो करते है पर आपकी बात पूरी तरह से समझ नही पाते । ' मुझे उनकी बात बहुत समझ आयी । दूसरी बार एक व्यापारिक सभा मे मुझे अब्दुल कलाम से मिलने का मौका मिला । वे तब राष्ट्रपति नही थे लेकिन वे बहुत प्रभावी शिक्षक थे ।वे बहुत साधारण अंग्रेज़ी बोल रहे थे लेकिन उसका प्रभाव बड़ा प्रबल था। मै उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ और इन दोनों घटनाओ के बाद मैंने भी क्लिष्ट अंग्रेज़ी बोलने का प्रयास छोड़ दिया ।
मित्रो के सलाह के बाद मैंने जब हिंदी में लिखना शुरू किया तो पुनः हर दूसरे शब्द उर्दू के ही निकलने लगे । बड़ी मुश्किल से शब्दों को खोज खोज के जब ये कहने की स्थति में आये कि अब मैं हिंदी में भी लिख सकता हूँ ,तो गलती से जयशंकर प्रसाद और मुशी प्रेमचंद को पढ़ लिया और फिर से दिमाग के सारे तार खुल गए । एक एकदम सरल और सामयिक , दूसरे ऐसे की एक एक पन्ने को पढ़ने के बाद आप सोच में पढ़ जाए। मैंने आचार्य चतुरसेन की एक किताब "वयम रक्षाम" पढ़ी थी ,उसमें लिखी हिंदी तो अभूतपूर्व थी । मैंने बहुत सी अंग्रेज़ी किताबें पढ़ी है । बल्कि कहिए तो बचपन किताबे पढ़ने में ही बीता लेकिन इतना उत्कृष्ट ज्ञान और भाषा का मुझे भान ही नही था । हमने अपने हिंदी के लेखकों को पढ़ना ही छोड़ दिया है । हमे लगता है उनको पढ़ना पिछड़ेपन की निशानी है और मुझे लगता हम कही गलत दिशा में जा रहे है । अब मैं प्रयास करता हूँ ज्यादा से ज्यादा हिंदी में लिखूँ , हिंदी को समझूं । अंग्रेजी को भारत मे कौशल के तर्ज पर ही पढ़ना चाहिये । भाषाई संस्कृति हमेशा देशी ही होनी चाहिए

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