Monday, May 24, 2021
Saturday, May 15, 2021
मोसाद का ऑपरेशन एंटेबे
भारत और इजराइल-फिलिस्तीनी संघर्ष
दुनिया के वे सभी धर्म जिन्होंने अपनी सारी ताकत अपनी प्राचीन धार्मिक प्रथाओं को बचने में लगा रखी है और आज भी आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक सोच से वंचित है , वे आज पीड़ित हैं और यदि नहीं बदले तो पीड़ित ही बने रहेंगे। इजराइल-फिलिस्तीनी संघर्ष इसी का पर्याय है।
रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात पश्चिम देशों में ईसाई धर्म का प्रसार हुआ और मध्ययुगीन काल में चर्चों की स्थापना के बाद लोगों को विधर्म के लिए जिंदा तक जला दिया जाता था। ईसाइयों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए अत्याचार के विषय को किसी के परिचय की आवश्यकता नहीं है। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अधिकांश पश्चिमी देशों ने अपने धार्मिक परंपराओं के कारण किये जाने वाले युद्ध की निरर्थकता को भली भांति अनुभव कर लिया और अपने समाज की दिशा को परिवर्तित करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने नैतिक मूल्य और धार्मिक विश्वास को बदला और अपने देशों को विज्ञान द्वारा एक विशाल आधुनिक सैन्य शक्ति एवं असाधारण अर्थव्यवस्था में परिवर्तित कर लिया।
उधर मध्य पूर्वी एशिया ने ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद पूरा मध्य पूर्व विभाजित हो गया। अगर आज के फिलस्तीन-इसरायल संघर्ष और विवाद को छोड़ दें तो मध्यपूर्व में भूमध्यसागर और जॉर्डन नदी के बीच की भूमि को फलीस्तीन कहा जाता था। बाइबल में फिलीस्तीन को कैन्नन कहा गया है और उससे पहले ग्रीक इसे फलस्तिया कहते थे। रोमन इस क्षेत्र को जुडया प्रांत के रूप में जानते थे। ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद फ़िलिस्तीन पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यहूदी समुदाय दो तरह से बाँट चुका था और हगना, इरगुन और लोही नाम के संगठन ब्रिटिश के विरुद्ध हिंसात्मक विद्रोह कर रहे थे। उन्नीसवी सदी के अन्त में तथा फिर बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में यूरोप में यहूदियों के ऊपर किए गए अत्याचार के कारण यूरोपीय तथा अन्य यहूदी अपने क्षेत्रों से भाग कर येरूशलम और इसके आसपास के क्षेत्रों में आने लगे। इन सब से परेशान ब्रिटिश साम्राज्य ने फिलिस्तीन के विभाजन की घोषणा की और इस क्रम में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा फिलिस्तीन के विभाजन को मान्यता दे दी गयी, जिसके अन्तर्गत राज्य का विभाजन दो राज्यों में होना था - एक अरब और दसूरा यहूदी। जबकि जेरुसलेम को संयुक्त राष्ट्र के अधीन कर दिया क्योकि , ये स्थान यहूदी ईसाई और मुस्लमान तीनो धर्मो के लिये एक विशेष स्थान रखता है और इस के बटवारे में बड़ी समस्या थी। इस व्यवस्था में जेरुसलेम को " सर्पुर इस्पेक्ट्रुम "(curpus spectrum) कहा गया ! ये यहूदियों के तीन हज़ार साल से पहले का उद्धभव का स्थान था इसलिए इस मरुभूमि को यहूदियों सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनके द्वारा इस व्यवस्था को तुरन्त मान्यता दे दी गयी। किन्तु अरब समुदाय ने इसे स्वीकार नहीं कर पाया और उसने तीन दिनों के बन्द की घोषणा की जिससे गृह युद्ध की स्तिथि बन गयी जिसकी वजह से तक़रीबन ढाई लाख फिलिस्तीनी लोगो ने राज्य छोड़ दिया। 14 मई 1948 को यहूदी समुदाय ने ब्रिटेन से पहले स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और इजराइल को राष्ट्र घोषित कर दिया,और इस बीच सीरिया, लीबिया तथा इराक ने इजरायल पर हमला कर दिया और तभी से 1948 के अरब - इजरायल युद्ध की शुरुआत हुयी। सऊदी अरब ने भी अपनी सेना भेजकर मिस्र की सहायता से आक्रमण किया और यमन भी युद्ध में शामिल हुआ। लगभग एक वर्ष के बाद युद्ध विराम की घोषणा हुयी और जॉर्डन तथा इजराइल के बीच सीमा रेखा अवतरित हुई जैसे green line (हरी रेखा) कहा गया और मिस्र ने गाज़ा पट्टी पर अधिकार कर लिए। करीब सात लाख फिलिस्तीनी इस युद्ध के दौरान विस्थापित हुए हो गए।11 मई 1949 में संयुक्त राष्ट्र ने इजरायल ने को मान्यता दे दी लेकिन फिर भी ज्यातर इस्लामिक देशों ने उसको मान्यता देने से इंकार कर दिया।
इस घटना से परेशान इजराइल को ये समझ में आ गया था कि ये अब उसके अस्तित्व का मामला था। उसने अपने अभूतपूर्व समर्पण और परिश्रम के साथ इस रेगिस्तान को कृषि भूमि में परिवर्तित करने का कार्य शुरू किया और बहुत तेजी से खुद को अत्यधिक आधुनिक सैन्य शक्ति एवं विशाल अर्थव्यवस्थाएं में परिवर्तित कर लिया। इसके विपरीत, फिलिस्तीन बिना किसी आर्थिक और सैन्य शक्ति बने, अरब और इस्लामी राष्ट्रों के समर्थन के साथ लड़ता रहा। फिलिस्तीन में 1964 में फिलिस्तीन लिबरेशन ओर्गानिज़शन (पी॰एल॰ओ॰) की स्थापना हुई जिसे १०० से अधिक राष्ट्रों ने फिलिस्तीन का एकमात्र वैधानिक प्रतिनिधि स्वीकार किया और 1974 से संयुक्त राष्ट्र संघ में पी॰एल॰ओ॰ प्रेक्षक के रूप में मान्य है। 1991 में हुए मैड्रिड सम्मेलन के पहले इजराइल और संयुक्त राज्य अमेरिका जो उसे एक आतंकवादी संगठन मानते थे उन्होंने भी इसे स्वीकार कर लिया ।
1966 में पुनः इजराइल - अरब युद्ध हुआ। 1967 में मिस्र ने जब संयुक्त राष्ट्र के अधिकारी दल को बाहर निकाल दिया और लाल सागर में इजराइल की आवागमन बन्द कर युद्ध की तैयारी कर दी तो इजराइल को इसकी पूर्व सूचना मिल गयी। इस से पहले उस पर हमला हो, इस्राईल ने अचानक जून 5, 1967 को मिस्र ,जोर्डन ,सीरिया तथा इराक के विरुद्ध युद्ध घोषित कर महज 6 दिनों में इन सारे अरब दुश्मनों को एक साथ पराजित कर पुरे क्षेत्र में अपनी सैनिक प्रभुसत्ता कायम कर ली और तेजी से फलीस्तीन के बड़े भूभाग पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया । इस युद्ध के पश्चात् भी इजराइल पर 1960 के अंत से 1970 तक पर कई हमले हुए जिसमें 1972 में इजराइल के प्रतिभागियों पर मुनिच ओलंपिक में हुआ हमला शामिल है।1973 को सिरिया तथा मिस्त्र द्वारा एक बार फिर इजराइल पर तब अचानक हमला किया गया जब इजराइली योम त्यौहार मना रहे थे, जिसके जवाब में सिरिया तथा मिस्त्र को बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ा। इन सारे हमलो में इजराइल ने अपने जीते हुए भूभाग के ऊपर कब्ज़ा कर लिया और उसे इजराइल में मिलाना शुरू कर दिया । आज जो आप इजराइल का बढ़ता हुआ क्षेत्र देखते है ये इसी का प्रभाव है।
ऑपरेशन एंतेब्बे (Operation Entebbe) -
अगर आप इस के बारे में नहीं जानते तो आप इजराइल के दुस्साहस को नहीं समझ सकते। हुआ यूँ कि 1976 में वाडी हद्दाद उर्फ़ अबू हानी जो पी॰पी एल ऍफ़ का सदस्य था ने जर्मन रिवोल्यूशनरी सेल के दो सदस्य द्वारा के साथ मिल कर तेल अवीव से पेरिस जाने वाली एयर फ्रांस एयरबस एयरलाइनर जिसमे 248 यात्री थे को हाईजैक कर लिया।अपहरणकर्ताओं का उद्देश्य इज़रायल में कैद 40 फ़िलिस्तीनी और संबद्ध उग्रवादियों को और चार अन्य देशों में 13 कैदियों को बंधकों के बदले मुक्त करना था। जहाज़ को पहले एथेंस फिर बेनगाज़ी होते हुए युगांडा के मुख्य हवाई अड्डे एंटेबे ले जाया गया जहाँ के तानाशाह ईदी अमीन जिसे शुरू से ही अपहरण की सूचना थी, ने व्यक्तिगत रूप से अपहरणकर्ताओं का स्वागत किया ।विमान से सभी बंधकों को एक अप्रयुक्त हवाई अड्डे की इमारत में ले जाने के बाद, सभी इजरायलियों और कई गैर-इजरायल यहूदियों को बड़े समूह से अलग कर उन्हें एक अलग कमरे में बंद कर दिया। अगले दो दिनों में, 148 गैर-इजरायल बंधकों को रिहा कर दिया गया और बचे हुए मुख्य रूप से 99 इजरायली और 12 सदस्यीय एयर फ्रांस चालक दल को बंधक बनाए रखा। अपहरणकर्ताओं ने बंधकों की रिहाई की मांग पूरी नहीं होने पर बंधकों को जान से मारने की धमकी दी। इस खतरे के कारण इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद द्वारा बचाव अभियान की योजना बनाई गई। इन योजनाओं में युगांडा सेना से सशस्त्र प्रतिरोध की तैयारी शामिल थी। आईडीएफ ने मोसाद द्वारा दी गई जानकारी पर अभूतपूर्व और दुस्साहस कार्रवाई की। ऑपरेशन रात में हुआ। बचाव अभियान के लिए इज़राइली परिवहन विमानों ने 4,000 किलोमीटर (2,500 मील) से अधिक 100 कमांडो को युगांडा ले जाया गया । एक हफ्ते की योजना के बाद चला यह ऑपरेशन 90 मिनट तक चला।106 बंधकों में से 102 को बचा लिया गया और तीन मारे गए। एक बंधक जो अस्पताल में था और बाद में उसे मार दिया गया। इस ऑपरेशन में पांच इजरायली कमांडो घायल और यूनिट कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल योनातन नेतन्याहू जो आज के प्रधानमत्री नेतन्याहू बेंजामिन नेतन्याहू के बड़े भाई थे, मारे गए। सभी अपहर्ता और पैंतालीस युगांडा के सैनिक मारे गए |युगांडा की वायु सेना के सोवियत निर्मित ग्यारह मिग-17 और मिग-21 को नष्ट कर दिया गया। ऑपरेशन के बाद ईदी अमीन ने मोसाद की मदद करने के लिए युगांडा में मौजूद कई सौ केन्याई का वध करने के आदेश जारी किए जिससे युगांडा में 245 केन्याई मारे गए और 3,000 भाग गए। इस सफल करवाई को ऑपरेशन एंतेब्बे (Operation Entebbe) के नाम से जाना जाता है।
भारत और इजराइल-फिलिस्तीनी
भारत ने हमेशा से इजराइल और फिलिस्तीन से बराबर के संबध बना रखे है। बल्कि भारत ने 1992 में ही जा कर इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये। फिर भी इज़राइल ने भारत को चीन युद्ध ,पाकिस्तान युद्ध , कारगिल संघर्ष और हाल के चीन संघर्ष जैसे सभी चुनौतीपूर्ण समय में हर प्रकार से समर्थन किया गया है। भारत और इजरायल-फिलिस्तीनी 971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान श्रीमती गोल्डा मायर द्वारा श्रीमती इंदिरा गाँधी से वार्ता के पश्चात् ईरान जा रहे हथियारों को भारत भेज दिया। हालांकि भारत ने इसके बावजूद उसके साथ लम्बे समय तक राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2017 में इजराइल की यात्रा की और यह किसी भारतीय प्रधान मंत्री द्वारा देश की पहली यात्रा थी।
भारत के दोनों देशों के प्रति तटस्थ होने के बावजूद दुनिया भर के मुसलमानों के साथ भारतीय मुसलमान मात्र उम्माह के नाम पर फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं ना कि यह कि वे व्यक्तिगत रूप से इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष से प्रभावित हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि दुनिया का कोई भी मुस्लिम देश या नेता कभी भी चीन के खिलाफ मुसलमानों की क्रूर अधीनता के लिए इतनी आवाज नहीं उठा पाता जितना कि वह फिलिस्तीनियों के बारे में उठाता है। मजेदार बात ये है कि मुस्लिम देशों के सरबरा संयुक्त राष्ट्र अमीरात और सऊदी अरब भी इजराइल के साथ अपने मधुर संबंध बनाए रखे है | इसी दोगलेपन का शिकार फिलिस्तीन है। दरअसल दुनिया की राजनीति केवल ताकत और पैसे की है। और इसके बल पर जो सत्ता में हैं, वे इसके साथ खेलना जानते हैं। इसी लिए वे कमजोर समाजों का उपयोग करते हैं और लाभ उठाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर पूरी इस्लामी दुनिया इसे पहचानने में विफल रही है और अपनी इन्ही विचारधारा के चक्कर में ईरान, सीरिया, इराक, जॉर्डन, मिस्र, अफगानिस्तान जैसे राष्ट्रों ने खुद को बर्बाद कर लिया और अब पाकिस्तान भी इसी कारण विनाश की राह पर है। जो इस जाल में पड़ने से बचते हैं जैसे बांग्लादेश और इंडोनेशिया,वे अब संपन्न अर्थव्यवस्था बन रहे हैं। भारत के लिए भी ये एक भीषण चेतावनी है। हमें भी सावधानी बरतनी बढ़ेगी और धार्मिक कट्टरता और उन्माद से दूर रह शिक्षा और गरीबी से निजात के लिए वैज्ञानिक सोच विकसित कर देश उत्थान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। याद रखिये हिंदू-मुसलमान का मुद्दा हमें इस्लामिक देशो के तरह पीछे ले जाएगा और इसलिए हमें बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है।
Israel - Palestinian Conflict
All those religions of the world which have put their ancient practices to the fore and have not moved ahead with modern education and scientific temperament, are suffering and may continue to suffer, if not changed.
Friday, May 14, 2021
भारत दर्शन
पिताजी के विभिन्न शहरों में तैनाती के कारण मुझे उत्तर भारत के बहुत सारे जगहों को देखने और जानने का मौका मिला लेकिन मेरी देश के प्रति जानकारी केवल उन जगहों की जानकारियों तक ही सीमित थी | बाकी भारत के बारे में जो मालूमात थी उन्हें मैंने विभिन्न किताबों के माध्यम से ही जाना था | इतिहास भी उतना ही पढ़ा जितना स्कूल में पढ़ाया गया | मेरे किसी जन्म दिवस पर किसी ने मुझे जवाहरलाल नेहरु की लिखी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया दे दी थी जिससे मुझे इतिहास को कुछ अलग तरीके से समझने का अवसर मिला | लेकिन लिखे हुए को समझने में और अनुभव के आधार पर किसी बात को समझने में बड़ा फर्क होता है | भारत को जानने का पहला अनुभव मुझे अपने मद्रास प्रवास के दौरान हुआ | रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही मुझे एक क्षण के लिए महसूस हुआ कि मैं एक अलग देश में आ गया |अलग सी भाषा और सामाजिक परिवेश ने मुझे चौका दिया | मैं तो भारत को केवल अपने नजरिए से जानता था | मुझे मालूम था कि भारत में बहुत सारी भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन संस्कृति की भिन्नता ने मुझे एकदम से चौंका दिया था |
मेरे मद्रास प्रवास के दौरान मेरी मुलाकात देश के बड़े दिग्गजों और ज्ञानियों से हुई और मैंने उनसे बहुत लाभ अर्जित किया | बहुत से ऐसे ज्ञानी मित्र मिले जिनकी संगत ने मेरी भाषा ,मेरे ज्ञान को और सुसंस्कृत किया | उन्हीं दिनों मैं इंटरनेशनल थियोसॉफिकल सोसायटी का सदस्य बन गया था और उस समय की अध्यक्ष राधा बर्नियर को सुनने जाया करता था जिससे मुझे दार्शनिकता का ज्ञान हुआ | बाद में किसी ने मुझे रामकृष्ण मठ का रास्ता दिखा दिया और यहीं से मुझे विवेकानंद की पुस्तकों को पढ़ने और भारतीय दर्शन को समझने का अवसर प्राप्त हुआ | मद्रास में पहुंचने के बाद मुझे पहली बार यह भी ज्ञान हुआ कि मैं एक आर्यन हूं और दक्षिण में रहने वाले सभी लोग द्रविड़ है | यह मेरे लिए एक अभूतपूर्व जानकारी थी और इसके पश्चात ही मुझे समझ में आया कि तमिलनाडु की प्रमुख पार्टियों के नाम के आगे द्रविड़ शब्द जैसे द्रविड़ मुनेत्र कड़गम क्यों लगा हुआ है | दक्षिण के तो भगवान भी मेरे लिए नए थे | वह उत्तर भारत के भगवानों की तरह ना दिखते थे ना उनके सरीखे नाम थे | तब मुझे भारत की विशाल विरासत और अभूतपूर्व विभिन्नता का ज्ञान हुआ |साथ में ये कि विभिन्न धर्मो के पश्चात भी हमारी सामाजिक संरचना प्रांतों और भाषाओं के आधार पर विविधताओं से भरी हुई है |
उन दिनों तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम जी रामचंद्रन थे |उनके बारे में कहा जाता है कि वे रहने वाले श्रीलंका के थे किंतु भारत में आकर बस गए थे और उन्होंने फिल्मों में अपना बहुत बड़ा स्थान बनाया | बाद में राजनीति में सम्मिलित हो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बन गए |उनके प्रति लोगों का आदर अभूतपूर्व था और मैंने ऐसा कभी उत्तर भारत में नहीं देखा | एमजीआर की मृत्यु के बाद उनकी उत्तराधिकारी जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनी और उनके बारे में तो सभी जानते हैं| जयललिता को भी राजनीति में वही स्थान प्राप्त था जो एमजीआर को था | मैंने उनके जन्मदिवस में लोगों को उनके घर जमीन पर सड़कों पर लोट के जाते हुए देखा है | दक्षिण मैं उनके और एमजीआर मंदिरों बने हुए हैं | दक्षिण भारत उत्तर भारत से एकदम एकदम भिन्न है | वहां के लोग ना केवल अपनी संस्कृति के प्रति बहुत ही सजग और स्वभाव से बहुत सरल होते हैं | उत्तर भारतीय लोगों की तरह वे दिखावे पर ज्यादा विश्वास ना करते ,पढ़ने लिखने वाले वैज्ञानिक विचार के होते हैं | मद्रास की लोकल ट्रेनों में मैंने लोगों को खड़े-खड़े झूलते हुए पुस्तकें पढ़ते हुए कई स्टेशनों को पार करते हुए देखा है | शायद इसीलिए भारत के बड़े वैज्ञानिकों में आपको ज्यादातर दक्षिण भारतीय ज्यादा मिलेंगे |
भारत में एक और जगह है जिसकी सांस्कृतिक विरासत और बौद्धिक क्षमता पूरे विश्व में परिलक्षित होती है और वह स्थान है बंगाल | बंगाल की संस्कृति अभूतपूर्व और कोलकाता में रहने वाले अधिकांश भद्रजन बहुत ही बुद्धिजीवी हैं |आप उनसे किसी भी विषय पर बात कर सकते हैं और भी बहुत सरल होते हैं उनके अंदर भी दिखावा तनिक सा नहीं होता | बंगाल के लोग बहुत कलात्मक होते हैं उनकी कलात्मकता का नमूना उनकी लिपि में ही मिल जाता है | बंगाली लिपि बहुत ही खूबसूरत और और वाणी बहुत ही मधुर होती है | इसीलिए बंगाल में भारत के सबसे ज्यादा बड़े कलाकार ,साहित्यकार , शिक्षाविद एवं दार्शनिक पैदा हुए हैं |
भाषा का भ्र्म
Sunday, May 2, 2021
भारत के प्रधानमत्री
भारत में अभी तक १४ प्रधानमत्री हो चुके है जिसमे से १२ को मैंने अपने जीवन काल में देखा है। मेरे काल की पहली प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी थी | वे बहुत सौम्य , नियंत्रित वाणी एवं रमणीय महिला थी | इन्दिरा जी को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही "प्रियदर्शिनी" नाम दिया था | सोमरविल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में अध्ययन के दौरान उनकी मुलाकात फिरोज़ गाँधी से हुयी जो लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में अध्ययन कर रहे थे। 1942 को आनंद भवन, इलाहाबाद में एक निजी समारोह में इनका विवाह फिरोज़ गाँधी से हुआ और इन्दिरा को उनका "गांधी" उपनाम विवाह के पश्चात मिला | ऑक्सफोर्ड से भारत वापस आने के बाद वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल हो गयीं। 1950 के दशक में वे अपने पिता के भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में कार्य करती रही | अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1964 में उनकी नियुक्ति एक राज्यसभा सदस्य के रूप में हुई। इसके बाद वे लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मत्री बनीं।लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद तत्कालीन काँग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक रहे। गाँधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। 1971 के भारत-पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में उन्होंने सन् 1975 में आपातकाल लागू कर दिया |
सत्तर के दशक में देश में जब आपतकाल लग चूका था , श्रीमती इंदिरा
गाँधी से पहला परिचय स्कूल के दौरान हो गया। हुआ यूं कि एक दिन स्कूल
में पुलिस आ गयी और बच्चो को एक क्रम में खड़ा कर दिया गया । साथ में सफ़ेद कोट पहने
हुए डॉक्टर सरीखे लोग थे। वे बच्चो के हाथ में एक पिस्तौलनुमा वस्तु के आकार से
हाथ में कुछ लगा रहे थे और बच्चे रोते चले जाते थे। मेरा में साथ भी
ऐसा ही हुआ ,बिलबिलाते रोते जब हम घर पहुंचे तो पता चला कि वो टीका था जो बिना परिवार
की अनुमति के हमें लगा दिया गया था । मेरे दाहिने हाथ में आज भी उसके
निशान आपातकाल की याद दिलाती है। इंदिरा जी के छोटे बेटे संजय का उन दिनों
राजनैतिक धड़े में बड़ा आतंक था लेकिन आम जनता संजय की बड़ी दीवानी थी। एक बार संजय
गाँधी आये और गोरखपुर के सिविल लाइन्स के स्टेडियम में उनके सम्बोधन का कार्यकम
था। उनके आने से पहले शहर की मुख्य बाजार गोलघर की सारी इमारतों को एक
रंग में रंग दिया गया। मैंने सरकारी अधिकारियो में ऐसा खौफ आज तक दुबारा कभी नहीं
देखा। संजय ने देश में जनसँख्या कम करने के नाम पर ना जाने कितनो की
जबरिया नसबंदी करा दी जिसका कोई हिसाब नहीं । किशोर कुमार के रेडियो पे गाने पर
प्रतिबंध लगा दिया , इंद्र कुमार गुजराल को बेज़्ज़त कर घर से भगा दिया। तुर्कमान
गेट में मुस्लिम बस्ती को रातो रात खाली करा दिया। आज की मशहूर अभिनेत्री सारा अली
की नानी , और अमृता सिंह की माँ रुकसाना सुल्तान उनकी अभिन्न थी जो उनके सारे
क्रिया कलापो में शामिल रहती थी। ऐसे ना जाने कितने किस्से हम रोज सुना करते
थे। मुसीबत तो तब आयी जब मेरे बड़े भांजे के जन्मदिन के अवसर पर आवेश
में आकर पिता जी ने इंदिरा जी के खिलाफ कुछ कटु बाते कह दी और महफ़िल में मौजूद कुछ
कांग्रेस्सियो ने पुलिस में उनकी शिकायत कर दी। अगर वे सरकारी अधिकारी ना होते तो
उन्हें जेल जाने से कोई बचा नहीं सकता था।
खैर इंदिरा जी ने अचानक आपातकाल ख़त्म कर अचानक चुनाव की घोषणा कर दी
और जय प्रकाश जी के नेतृत्व में कांग्रेस (O) , सोशलिस्ट पार्टी , लोकदल ,और जनसंघ
का विलय हो नये दल जनता पार्टी का गठन हुआ ।बाबू जगजीवन राम , नंदनी
सतपथी , हेमवंती नंदन बहुगुणा सरीके दिग्गज इंदिरा कांग्रेस को छोड़ जनता पार्टी
में शामिल हो गए। चुनाव के दौरान इंदिरा जी खिलाफ भारी नाराज़गी थी और हम बच्चे बक्शीपुर
के चौराहे पर हलधर किसान का बिल्ला सभी लोगो को बांटेते थे और शिक्षित करते थे की
मोहर इसी पर लगाइये । इंदिरा जी चुनाव हार गयी और मोरार जी देसाई सन
१९७७ में भारत के नए प्रधानमंत्री बने।
मोरारजी बहुत ही शिक्षित और चतुर राजनैतिज्ञ थे। वे राज्य सिविल सर्विस पास कर गुजरात के गोधरा के डिप्टी कलेक्टर बने लेकिन १९२३ के हिन्दू मुस्लिम दंगे में अपने ऊपर पक्षपात का आरोप लगने से छुब्ध पद से त्यागपत्र दे दिया और गाँधी जी के आवाहन पर स्वतन्त्रा संग्राम में शामिल हो गए। १९३४ और १९३७ में जब गुजरात राज्य का चुनाव हुआ तो देसाई चुनाव जीत राज्य के राजस्व और गृह मंत्री बन गए और भारत आज़ाद होने के बाद १९५२ में वे बॉम्बे राज्य के मुख्य मंत्री बने । १९५६ में जब भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात हुई तो मोररजी उसके खिलाफ थे। वे बॉम्बे को केंद्र शासित बनाये जाने के पक्ष में थे। १९५६ में मराठी राज्य की मांग करने वाले सेनापति बापत द्वारा मोर्चा निकाले जाने पर उन्होंने गोली चलाने का आदेश दे दिया , जिससे ११ साल की बच्ची समेत 105 लोग मारे गए। इसके बाद ही नेहरू जी की केंद्र सरकार ने मराठा राज्य महाराष्ट्र के गठन के लिए सहमति दे दी , जिसकी राजधानी मुंबई बनायीं गयी और मोरार जी को केंद्र में वित्त मंत्री बना दिया गया । नेहरू जी के मृत्य के बाद मोरारजी प्रधानमंत्री बनने के प्रबल दावेदार थे । शास्त्री जी के मृत्य के बाद मोरारजी ने पुनः प्रधानमंत्री बनने के लिए बड़ा ज़ोर लगाया लेकिन बाजी इंदिरा जी के हाथ लगी और वे प्रधान मंत्री बन गयी। मोरारजी को वित्त मंत्री एवं उप प्रधानमंत्री बनाया गया । किन्ही कारणो से जब इंदिरा जी ने उनसे वित्त विभाग वापस ले लिया तो उन्होंने कांग्रेस से त्याग पत्र दे दिया।
उन्हें मौका मिला आपतकाल के बाद जब वे १९७७ में देश के चौथे प्रधानमंत्री
बने। उस समय उनकी आयु ८१ वर्ष हो चुकी थी। प्रधान मंत्री
बनते ही उन्होंने इंदिरा गाँधी द्वारा किया बयालीसवाँ संशोधन को पुनः संशोधित किया
जिससे भविष्य में कोई भी पुनः आपातकाल ना लगा सके। भारतीय संविधान का ४२वाँ संशोधन
इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व वाली कांग्रेस द्वारा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं
की पूर्ति के लिए आपातकाल के दौरान किया गया था। यह संशोधन भारतीय
इतिहास का सबसे विवादास्पद संशोधन माना जाता है। इस संशोधन के द्वारा भारत के
सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की उन शक्तियों को कम करने का प्रयत्न किया
गया जिनमें वे किसी कानून की संवैधानिक वैधता की समीक्षा कर सकते हैं। इस संशोधन
को कभी-कभी 'लघु-संविधान' (मिनी-कॉन्स्टिट्यूशन) या 'कान्स्टिट्यूशन ऑफ इन्दिरा'
भी कहा जाता है।
हालाकि मोरारजी ने पूरा प्रयास किया फिर भी वे संविधान की मूल प्रस्तावना
को उसके वास्तविक स्वरुप में लाने में विफल रहे। संविधान के मुख्य
निर्माता डॉक्टर अंबडेकर भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को संविधान
के प्रस्तावना में डालने के विरुद्ध थे। १९४६ के संविधान
सभा के अधिवेशन की बहस में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा - " What
should be the policy of the State, how the Society should be organised in its
social and economic side are matters which must be decided by the people
themselves according to time and circumstances. It cannot be laid down in the
Constitution itself, because that is destroying democracy altogether. If you
state in the Constitution that the social organisation of the State shall take
a particular form, you are, in my judgment, taking away the liberty of the
people to decide what should be the social organisation in which they wish to
live. It is perfectly possible today, for the majority people to hold that the
socialist organisation of society is better than the capitalist organisation of
society. But it would be perfectly possible for thinking people to devise some
other form of social organisation which might be better than the socialist
organisation of today or of tomorrow. I do not see therefore why the
Constitution should tie down the people to live in a particular form and not
leave it to the people themselves to decide it for themselves."
इंदिरा गाँधी द्वारा किया बयालीसवाँ संशोधन ने प्रस्तावना के मूल भाव
को ही बदल आंबेडकर के इस चिंतन पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया और इसे उसके वास्तिक
रूप में ना ला पाना मोरारजी की जनता पार्टी की एक हार थी। लिहाजा आज भी
ये देश के लिए नासूर बना हुआ है क्योकि भारत की सामाजिक परिवेश - और संविधान की
मूल भावना में कोई तारतम्य रह ही नहीं गया है।
मोररजी के प्रधानमंत्री काल का और जो मुझे याद है ,वो है विदेश मंत्री बाजपेयी जी का सयुंक्त राष्ट्र के ३२ अधिवेशन में हिंदी में दिया भाषण , उनके द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियो को देश निकाला और RAW को ख़त्म करने का कार्य और ये कि साथ ही ये की वे अपने मूत्र द्वारा खुद की चिकत्सा करते थे। सन १९७९ में मधु लिमये , कृष्णा कांत ,और जॉर्ज फर्नांडेस ने जनता पार्टी के जनसंघ धड़े के सदस्यों के राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के सदस्य होने पर आप्पति जताई। उसके बाद ही राज नारायण और चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गयी | इसके पश्चात् २८ जुलाई १९७९ में इंदिरा कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह भारत के पांचवे प्रधान मंत्री बने और मोरार जी के राजनतिक जीवन का पटाछेप हो गया |
क्रमश..
The Surya Siddhanta and Modern Physics: Bridging Ancient Wisdom with Scientific Discovery 🌌📜⚛️
The Surya Siddhanta, an ancient Indian astronomical treatise written over a millennium ago, is a fascinating work that reflects the advanc...
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Alas!!! Once again, we the Indians have entered into a debate on the reasons of Mr. MF Husain's becoming citizen of some align land. I ...
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