Saturday, May 15, 2021

भारत और इजराइल-फिलिस्तीनी संघर्ष

दुनिया के वे सभी धर्म जिन्होंने अपनी सारी ताकत अपनी प्राचीन धार्मिक प्रथाओं को बचने में लगा रखी है और आज भी आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक सोच से वंचित है , वे आज पीड़ित हैं और यदि नहीं बदले तो पीड़ित ही बने रहेंगे। इजराइल-फिलिस्तीनी संघर्ष इसी का पर्याय है।   

रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात पश्चिम देशों में ईसाई धर्म का प्रसार हुआ और मध्ययुगीन काल में चर्चों की स्थापना के बाद लोगों को विधर्म के लिए जिंदा तक जला दिया जाता था। ईसाइयों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए अत्याचार के विषय को किसी के परिचय की आवश्यकता नहीं है। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अधिकांश पश्चिमी देशों ने अपने धार्मिक परंपराओं के कारण किये जाने वाले युद्ध की निरर्थकता को भली भांति अनुभव कर लिया और अपने समाज  की दिशा को परिवर्तित करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने नैतिक मूल्य और धार्मिक विश्वास को  बदला और अपने देशों को विज्ञान द्वारा एक विशाल आधुनिक सैन्य शक्ति एवं असाधारण अर्थव्यवस्था में परिवर्तित कर लिया। 


उधर मध्य पूर्वी एशिया ने ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद पूरा मध्य पूर्व विभाजित हो गया। अगर आज के फिलस्तीन-इसरायल संघर्ष और विवाद को छोड़ दें तो मध्यपूर्व में भूमध्यसागर और जॉर्डन नदी के बीच की भूमि को फलीस्तीन कहा जाता था। बाइबल में फिलीस्तीन को कैन्नन कहा गया है और उससे पहले ग्रीक इसे फलस्तिया कहते थे। रोमन इस क्षेत्र को जुडया प्रांत के रूप में जानते थे। ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद फ़िलिस्तीन पर अंग्रेजों ने  कब्जा कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यहूदी समुदाय दो तरह से बाँट चुका था और हगना, इरगुन और लोही नाम के संगठन ब्रिटिश के विरुद्ध हिंसात्मक विद्रोह कर रहे थे। उन्नीसवी सदी के अन्त में तथा फिर बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में यूरोप में यहूदियों के ऊपर किए गए अत्याचार के कारण यूरोपीय तथा अन्य यहूदी अपने क्षेत्रों से भाग कर येरूशलम और इसके आसपास के क्षेत्रों में आने लगे।  इन सब से परेशान  ब्रिटिश साम्राज्य ने फिलिस्तीन के विभाजन की घोषणा की और इस क्रम में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा फिलिस्तीन के विभाजन को मान्यता दे दी गयी, जिसके अन्तर्गत राज्य का विभाजन दो राज्यों में होना था - एक अरब और दसूरा यहूदी। जबकि जेरुसलेम को संयुक्त राष्ट्र के अधीन कर दिया क्योकि , ये स्थान यहूदी ईसाई और मुस्लमान तीनो धर्मो के लिये एक विशेष स्थान रखता है और इस के बटवारे में बड़ी समस्या थी।  इस व्यवस्था में जेरुसलेम को " सर्पुर इस्पेक्ट्रुम "(curpus spectrum) कहा गया ! ये यहूदियों के तीन हज़ार साल से पहले का उद्धभव का स्थान था इसलिए इस मरुभूमि को यहूदियों सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनके द्वारा इस व्यवस्था को तुरन्त मान्यता दे दी गयी।  किन्तु अरब समुदाय ने इसे स्वीकार नहीं कर पाया और उसने तीन दिनों के बन्द की घोषणा की जिससे गृह युद्ध की स्तिथि बन गयी जिसकी वजह से तक़रीबन ढाई लाख फिलिस्तीनी लोगो ने राज्य छोड़ दिया। 14 मई 1948 को यहूदी समुदाय ने ब्रिटेन से पहले स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और इजराइल को राष्ट्र घोषित कर दिया,और इस बीच सीरिया, लीबिया तथा इराक ने इजरायल पर हमला कर दिया और तभी से 1948 के अरब - इजरायल युद्ध की शुरुआत हुयी। सऊदी अरब ने भी अपनी सेना भेजकर मिस्र की सहायता से आक्रमण किया और यमन भी युद्ध में शामिल हुआ। लगभग एक वर्ष के बाद युद्ध विराम की घोषणा हुयी और जॉर्डन तथा इजराइल के बीच सीमा रेखा अवतरित हुई जैसे green line (हरी रेखा) कहा गया और मिस्र  ने गाज़ा पट्टी पर अधिकार कर लिए।   करीब सात लाख फिलिस्तीनी इस युद्ध के दौरान विस्थापित हुए हो गए।11 मई 1949 में संयुक्त राष्ट्र ने इजरायल ने को मान्यता  दे दी लेकिन फिर भी ज्यातर इस्लामिक देशों ने उसको मान्यता देने से इंकार कर दिया। 


इस घटना से परेशान इजराइल को ये समझ में आ गया था कि ये अब उसके अस्तित्व का मामला था।  उसने अपने अभूतपूर्व समर्पण और परिश्रम के साथ इस रेगिस्तान को कृषि भूमि में परिवर्तित करने का कार्य शुरू किया और बहुत तेजी से खुद को अत्यधिक आधुनिक सैन्य शक्ति एवं विशाल अर्थव्यवस्थाएं में परिवर्तित कर लिया। इसके विपरीत, फिलिस्तीन बिना किसी आर्थिक और सैन्य  शक्ति बने, अरब और इस्लामी राष्ट्रों के समर्थन के साथ लड़ता रहा। फिलिस्तीन में  1964 में फिलिस्तीन लिबरेशन ओर्गानिज़शन (पी॰एल॰ओ॰) की स्थापना हुई जिसे १०० से  अधिक राष्ट्रों ने फिलिस्तीन का एकमात्र वैधानिक प्रतिनिधि स्वीकार किया और 1974 से संयुक्त राष्ट्र संघ में पी॰एल॰ओ॰ प्रेक्षक के रूप में मान्य है। 1991 में हुए मैड्रिड सम्मेलन के पहले इजराइल और संयुक्त राज्य अमेरिका जो उसे एक आतंकवादी संगठन मानते थे  उन्होंने भी इसे स्वीकार कर लिया । 


1966 में पुनः इजराइल - अरब युद्ध हुआ।  1967 में मिस्र ने जब संयुक्त राष्ट्र के अधिकारी दल को बाहर निकाल दिया और लाल सागर में इजराइल की आवागमन बन्द कर  युद्ध की तैयारी कर दी तो इजराइल को इसकी पूर्व सूचना मिल गयी। इस से पहले उस पर हमला हो, इस्राईल ने अचानक  जून 5, 1967 को मिस्र ,जोर्डन ,सीरिया तथा इराक के विरुद्ध युद्ध घोषित कर महज 6 दिनों में इन सारे अरब दुश्मनों को एक साथ पराजित कर पुरे क्षेत्र में अपनी सैनिक प्रभुसत्ता कायम कर ली और तेजी से फलीस्तीन के बड़े भूभाग पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया । इस युद्ध के पश्चात् भी इजराइल पर 1960 के अंत से 1970 तक  पर कई हमले हुए जिसमें 1972 में इजराइल के प्रतिभागियों पर मुनिच ओलंपिक में हुआ हमला शामिल है।1973 को सिरिया तथा मिस्त्र द्वारा एक बार फिर इजराइल पर तब अचानक हमला किया गया जब इजराइली योम त्यौहार मना रहे थे, जिसके जवाब में सिरिया तथा मिस्त्र को बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ा। इन सारे हमलो में इजराइल ने अपने जीते हुए भूभाग के ऊपर कब्ज़ा कर लिया और उसे इजराइल में मिलाना शुरू कर दिया । आज जो आप इजराइल का बढ़ता हुआ क्षेत्र देखते  है ये इसी का प्रभाव है।     


ऑपरेशन एंतेब्बे  (Operation Entebbe)  - 


अगर आप इस के बारे में नहीं जानते तो आप इजराइल के दुस्साहस को नहीं समझ सकते।  हुआ यूँ  कि 1976 में वाडी हद्दाद उर्फ़ अबू हानी जो  पी॰पी एल ऍफ़ का सदस्य था ने जर्मन रिवोल्यूशनरी सेल के दो सदस्य द्वारा के साथ मिल कर तेल अवीव से पेरिस जाने वाली एयर फ्रांस एयरबस एयरलाइनर जिसमे 248 यात्री थे को हाईजैक कर लिया।अपहरणकर्ताओं का उद्देश्य इज़रायल में कैद 40 फ़िलिस्तीनी और संबद्ध उग्रवादियों को और चार अन्य देशों में 13 कैदियों को बंधकों के बदले मुक्त करना था। जहाज़ को पहले एथेंस फिर बेनगाज़ी होते हुए युगांडा के मुख्य हवाई अड्डे एंटेबे ले जाया गया जहाँ के तानाशाह ईदी अमीन जिसे शुरू से ही अपहरण की सूचना  थी, ने व्यक्तिगत रूप से अपहरणकर्ताओं का स्वागत किया ।विमान से सभी बंधकों को एक अप्रयुक्त हवाई अड्डे की इमारत में ले जाने के बाद, सभी इजरायलियों और कई गैर-इजरायल यहूदियों को बड़े समूह से अलग कर उन्हें एक अलग कमरे में बंद  कर दिया। अगले दो दिनों में, 148 गैर-इजरायल बंधकों को रिहा कर दिया गया और बचे हुए मुख्य रूप से 99 इजरायली और 12 सदस्यीय एयर फ्रांस चालक दल को बंधक बनाए  रखा। अपहरणकर्ताओं ने बंधकों की रिहाई की मांग पूरी नहीं होने पर बंधकों को जान से मारने की धमकी दी। इस खतरे के कारण इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद द्वारा बचाव अभियान की योजना बनाई गई। इन योजनाओं में युगांडा सेना से सशस्त्र प्रतिरोध की तैयारी शामिल थी। आईडीएफ ने मोसाद द्वारा दी गई जानकारी पर अभूतपूर्व और दुस्साहस कार्रवाई की। ऑपरेशन रात में हुआ। बचाव अभियान के लिए इज़राइली परिवहन विमानों ने 4,000 किलोमीटर (2,500 मील) से अधिक 100 कमांडो को युगांडा ले जाया गया । एक हफ्ते की योजना के बाद चला यह ऑपरेशन 90 मिनट तक चला।106 बंधकों में से 102 को बचा लिया गया और तीन मारे गए। एक बंधक जो  अस्पताल में था और बाद में उसे मार दिया गया। इस ऑपरेशन में पांच इजरायली कमांडो घायल और यूनिट कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल योनातन नेतन्याहू जो आज के प्रधानमत्री नेतन्याहू बेंजामिन नेतन्याहू के बड़े भाई थे, मारे गए। सभी अपहर्ता और पैंतालीस युगांडा के सैनिक मारे गए |युगांडा की वायु सेना के सोवियत निर्मित  ग्यारह मिग-17 और मिग-21 को नष्ट कर दिया गया। ऑपरेशन के बाद ईदी अमीन ने मोसाद की मदद करने के लिए युगांडा में मौजूद कई सौ केन्याई का वध करने के आदेश जारी किए जिससे युगांडा में 245 केन्याई मारे गए और 3,000 भाग गए। इस सफल करवाई को ऑपरेशन एंतेब्बे (Operation Entebbe) के नाम से जाना जाता है।  


भारत और इजराइल-फिलिस्तीनी 


भारत ने हमेशा से इजराइल और फिलिस्तीन से बराबर के संबध बना रखे है। बल्कि भारत ने 1992 में ही जा कर इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये।  फिर भी इज़राइल ने भारत को चीन युद्ध  ,पाकिस्तान युद्ध , कारगिल संघर्ष और हाल के चीन संघर्ष जैसे सभी चुनौतीपूर्ण समय में हर प्रकार से   समर्थन किया गया है। भारत और इजरायल-फिलिस्तीनी 971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान श्रीमती गोल्डा मायर द्वारा श्रीमती इंदिरा गाँधी से वार्ता के पश्चात् ईरान जा रहे हथियारों को भारत भेज दिया।  हालांकि भारत ने इसके बावजूद उसके साथ लम्बे समय तक राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किए।   प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2017 में इजराइल की यात्रा की और यह किसी भारतीय प्रधान मंत्री द्वारा देश की पहली यात्रा थी।


भारत के दोनों देशों के प्रति तटस्थ होने के बावजूद दुनिया भर के मुसलमानों के साथ भारतीय मुसलमान मात्र उम्माह के नाम पर  फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं ना कि यह कि वे व्यक्तिगत रूप से इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष से प्रभावित हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि दुनिया का कोई भी मुस्लिम देश या नेता कभी भी चीन के खिलाफ मुसलमानों की क्रूर अधीनता के लिए इतनी आवाज नहीं उठा पाता जितना कि वह फिलिस्तीनियों के बारे में उठाता है। मजेदार बात ये है कि मुस्लिम देशों के सरबरा संयुक्त राष्ट्र अमीरात और सऊदी अरब भी इजराइल  के साथ अपने मधुर संबंध बनाए रखे है | इसी दोगलेपन का शिकार फिलिस्तीन है। दरअसल दुनिया की राजनीति केवल ताकत और पैसे की है। और इसके बल पर जो सत्ता में हैं, वे इसके साथ खेलना जानते हैं। इसी लिए वे कमजोर समाजों का उपयोग करते हैं और लाभ उठाते हैं। कुछ  अपवादों को छोड़ कर पूरी इस्लामी दुनिया इसे पहचानने में विफल रही है और अपनी इन्ही विचारधारा के चक्कर में  ईरान, सीरिया, इराक, जॉर्डन, मिस्र, अफगानिस्तान जैसे राष्ट्रों ने  खुद को बर्बाद कर लिया और अब पाकिस्तान भी इसी कारण विनाश की राह पर है। जो इस जाल में पड़ने से बचते हैं जैसे बांग्लादेश और इंडोनेशिया,वे अब संपन्न अर्थव्यवस्था बन रहे हैं। भारत के लिए भी ये एक भीषण चेतावनी है। हमें भी  सावधानी बरतनी बढ़ेगी और धार्मिक कट्टरता और उन्माद से दूर रह शिक्षा और गरीबी से निजात के लिए वैज्ञानिक सोच विकसित कर देश उत्थान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। याद रखिये हिंदू-मुसलमान का मुद्दा हमें इस्लामिक देशो के तरह पीछे ले जाएगा और इसलिए हमें बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है।



Israel - Palestinian Conflict

All those religions of the world which have put their ancient practices to the fore and have not moved ahead with modern education and scientific temperament, are suffering and may continue to suffer, if not changed.

Christianity used to be very vicious once and in the medieval era after the establishment of churches, people used to be charred alive for heresy. Subsequently, the treatment of Jews by Christians needs no introduction. But after the second world war, most western nations realized the futility of ancient practices leading to war and moved ahead with science and technology. The result is before us. Thriving western economies with great military & scientific power.
After the fall of the Ottoman Empire, the entire middle east split, and Israel and Palestine came into being. In 1967 Israel was attacked by 5 Arab nations as an ummah but was defeated by Israel within 5 days. Israel learned that it was now a matter of their existence and hence developed itself into huge military power with the help of Christian nations. On the contrary, Palestine continued to fight without any advancement and with only verbal support of Islamic Nations. It happened that for Islamic ideology nations like Iran, Syria, Iraq, Jordan, Egypt, Afghanistan ruined themselves with the latest addition of Pakistan, which is on the road to destruction.
Back in India, despite we being neutral to both the nations, during all challenging times, like Kargil Conflict and the recent China Conflict, it was only Israel, which stood by India and not Palestine. But Indian Muslims support Palestinian for an Ummah and not that they are personally affected by Israel - Palestine conflict. But what surprises that, no Muslim leader has ever been able to raise any voice against China for the brutal subjugation of Muslims as much as it is about Palestinians.
World politics is about power and money. And those at the place of power know how to play with it. They use vulnerable societies and reap the benefits. The entire Islamic world has failed to recognize it and has destroyed itself barring two-nation, Bangladesh and Indonesia, which avoided falling into the trap and hence are now turning out to be thriving economies.
India too must take precautions and not imbibe religious bigotry. We should be focused on education and the upliftment of people out of poverty and develop scientific temperament. The Hindu-Muslim issue will take us backward and hence huge caution is needed while moving forward.

Friday, May 14, 2021

भारत दर्शन

पिताजी के विभिन्न शहरों में तैनाती के कारण मुझे उत्तर भारत के बहुत सारे जगहों को देखने और जानने का मौका मिला लेकिन मेरी देश के प्रति जानकारी केवल उन जगहों की जानकारियों तक ही सीमित थी | बाकी भारत के बारे में जो मालूमात थी उन्हें मैंने विभिन्न किताबों के माध्यम से ही जाना था | इतिहास भी उतना ही  पढ़ा जितना स्कूल में पढ़ाया गया | मेरे  किसी जन्म दिवस पर किसी ने मुझे जवाहरलाल नेहरु की लिखी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया  दे दी थी जिससे  मुझे इतिहास को कुछ अलग तरीके से  समझने का अवसर मिला | लेकिन लिखे हुए को समझने में और अनुभव के आधार पर किसी बात को समझने में बड़ा फर्क होता है | भारत को जानने का पहला अनुभव  मुझे अपने मद्रास प्रवास के दौरान हुआ |  रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही मुझे एक क्षण के लिए महसूस हुआ कि मैं एक  अलग देश में आ गया |अलग सी भाषा और सामाजिक परिवेश  ने मुझे चौका दिया |  मैं तो भारत को केवल अपने नजरिए से  जानता था | मुझे मालूम था कि भारत में बहुत सारी भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन संस्कृति की भिन्नता ने मुझे एकदम से चौंका दिया था | 


मेरे मद्रास प्रवास के दौरान मेरी मुलाकात देश के बड़े दिग्गजों और ज्ञानियों से हुई और मैंने उनसे बहुत लाभ अर्जित किया | बहुत से ऐसे ज्ञानी मित्र मिले जिनकी संगत ने मेरी भाषा ,मेरे ज्ञान को और सुसंस्कृत किया | उन्हीं दिनों मैं इंटरनेशनल थियोसॉफिकल सोसायटी का सदस्य बन गया था और उस समय की अध्यक्ष राधा बर्नियर को सुनने जाया करता था जिससे मुझे दार्शनिकता का ज्ञान हुआ | बाद में किसी ने मुझे रामकृष्ण मठ का रास्ता दिखा दिया और यहीं से मुझे विवेकानंद की पुस्तकों को पढ़ने और भारतीय दर्शन को समझने का अवसर प्राप्त हुआ | मद्रास में पहुंचने के बाद मुझे पहली बार यह भी ज्ञान हुआ कि मैं एक आर्यन हूं और दक्षिण में रहने वाले सभी लोग द्रविड़ है | यह मेरे लिए एक अभूतपूर्व जानकारी थी और इसके पश्चात ही मुझे समझ में आया कि तमिलनाडु की प्रमुख पार्टियों के नाम के आगे द्रविड़ शब्द जैसे द्रविड़ मुनेत्र कड़गम क्यों लगा हुआ है | दक्षिण के तो भगवान भी मेरे लिए नए थे | वह उत्तर भारत के भगवानों की तरह ना दिखते थे ना उनके सरीखे नाम थे | तब मुझे भारत की विशाल विरासत और अभूतपूर्व विभिन्नता का ज्ञान हुआ |साथ में ये कि विभिन्न धर्मो के पश्चात भी हमारी सामाजिक संरचना प्रांतों और भाषाओं के आधार पर विविधताओं से भरी हुई है |

उन दिनों तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम जी रामचंद्रन थे |उनके बारे में कहा जाता है कि वे रहने वाले श्रीलंका के थे किंतु भारत में आकर बस गए थे और उन्होंने फिल्मों में अपना बहुत बड़ा स्थान बनाया | बाद में राजनीति में सम्मिलित हो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बन गए |उनके प्रति लोगों का आदर अभूतपूर्व था और मैंने ऐसा कभी उत्तर भारत में नहीं देखा | एमजीआर की मृत्यु के बाद उनकी उत्तराधिकारी जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनी और उनके बारे में तो सभी जानते हैं| जयललिता को भी राजनीति में वही स्थान प्राप्त था जो एमजीआर को था | मैंने उनके जन्मदिवस में लोगों को उनके घर जमीन पर सड़कों पर लोट के जाते हुए देखा है | दक्षिण मैं उनके और एमजीआर मंदिरों बने हुए हैं | दक्षिण भारत उत्तर भारत से एकदम एकदम भिन्न है | वहां के लोग ना केवल अपनी संस्कृति के प्रति बहुत ही सजग और स्वभाव से बहुत सरल होते हैं | उत्तर भारतीय लोगों की तरह वे दिखावे पर ज्यादा विश्वास ना करते ,पढ़ने लिखने वाले वैज्ञानिक विचार के होते हैं | मद्रास की लोकल ट्रेनों में मैंने लोगों को खड़े-खड़े झूलते हुए पुस्तकें पढ़ते हुए कई स्टेशनों को पार करते हुए देखा है | शायद इसीलिए भारत के बड़े वैज्ञानिकों में आपको ज्यादातर दक्षिण भारतीय ज्यादा मिलेंगे |


भारत में एक और जगह है जिसकी सांस्कृतिक विरासत और बौद्धिक क्षमता पूरे विश्व में परिलक्षित होती है और वह स्थान है बंगाल | बंगाल की संस्कृति अभूतपूर्व और कोलकाता में रहने वाले अधिकांश भद्रजन बहुत ही बुद्धिजीवी हैं |आप उनसे किसी भी विषय पर बात कर सकते हैं और भी बहुत सरल होते हैं उनके अंदर भी दिखावा तनिक सा नहीं होता | बंगाल के लोग बहुत कलात्मक होते हैं उनकी कलात्मकता का नमूना उनकी लिपि में ही मिल जाता है | बंगाली लिपि बहुत ही खूबसूरत और और वाणी बहुत ही मधुर होती है | इसीलिए बंगाल में भारत के सबसे ज्यादा बड़े कलाकार ,साहित्यकार , शिक्षाविद एवं दार्शनिक पैदा हुए हैं |


मुझे कोलकाता जाने का पहला अवसर 90 के दशक में मिला जब मेरे चचेरे भाई भारतीय राजस्व सेवा में चयनित होकर कोलकाता में परिवीक्षा के दौरान तैनात थे | वे रोज कार्यालय जाते वक्त मुझ को अपने साथ ले जाया करते थे | दादा अभूतपूर्व विद्वान और कला के प्रेमी थे और मुझे अपने साथ में लेकर कोलकाता की प्राचीन इमारतों और प्रदर्शनियों घुमा करते थे | उनके साथ रहकर मैंने कोलकाता को बहुत नजदीक से देखा और बंगाल के संस्कृति से परिचित हुआ | कोलकाता में ही मुझे पहली बार मेट्रो और ट्राम में बैठने का अवसर प्राप्त हुआ ,जिसका अनुभव असाधारण है |

एक बार वह मुझे लेकर कोलकाता के हाई कोर्ट में चले गए | दो जजों की डिवीजन बेंच थी और कस्टम विभाग की तरफ से कोई बैरिस्टर साहब मुकदमा लड़ रहे थे | वह अपना पक्ष रखते और उसके बाद तुरंत लॉबी में आ जाते | उनके लॉबी में ही आते बहुत से लोग सिगरेट लेकर उनकी तरफ दौड़ते थे और कोई लाइटर आगे बढ़ा देता था |वह जल्दी से दो चार फूंक मारते और फिर अंदर जाकर बहस करने लगते | इस दौरान जज साहिबान उनका इंतजार करते थे | मेरे लिए एक बहुत आश्चर्यचकित करने वाली घटना थी | मैंने जब दादा से इस विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि डिवीजन के दोनों जज साहब , बैरिस्टर साहिब के चेंबर से ही जीवन की शुरुआत किए थे फिर तो इतना सम्मान शायद स्वाभाविक था | उस समय तो मुझे थोड़ा अटपटा जरूर लगा लेकिन आज जब बड़े वरिष्ठ वकीलों को उच्च और उच्चतम न्यायालय में बोलते देखता हूं तब मुझे उन बैरिस्टर साहिब की याद आ ही जाती है |

मेरे एक मित्र जो भारतीय पोस्टल सेवा में कोलकाता में कार्यरत थे वे बताते हैं कि एक दिन उनसे मिलने पोस्टमैन आया | एक पोस्टल निदेशक से एक पोस्टमैन के मिलने का अमूमन कोई कार्य नहीं होता इसलिए उन्होंने अपने निजी सहायक को उन्हें किसी संबंधित अधिकारी के पास भेजने का निर्देश दिया | लेकिन डाकिया ने उससे मिलने की जिद की तो उन्होंने उन्हें अपने कक्ष में बुला लिया | पोस्टमैन ने उन्हें अपने उन्हें अपने आने का कारण बताया और अपनी पेंटिंग की लगने वाली प्रदर्शनी के लिए मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित इच्छा जाहिर की| वे हैरान हो गए एक पोस्टमैन और पेंटिंग | लेकिन उन्होंने पेंटिंग की प्रदर्शनी का मुख्य अतिथि बनना स्वीकार किया | वह बताते हैं कि पोस्टमैन की पेंटिंग देख कर मैं हैरान हो गया |उन्हें आशा नहीं थी पोस्टमैन जैसे पद पर काम करने वाला व्यक्ति इतना बड़ा कलाकार हो सकता है |

लेकिन बंगाल में आपको ऐसे बहुत लोग मिल जाएंगे | शायद इसीलिए भारत के विभाजन के पश्चात पूर्वी पाकिस्तान बहुत लंबे समय तक पाकिस्तान का हिस्सा नहीं रह पाया और बांग्लादेश में परिवर्तित हो गया | भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान के बनाने वालों ने उसका आधार धार्मिक बनाया था किंतु वे उसे धर्म के आधार पर चला ना पाए क्योंकि वहां के रहने वाले, अपने पुरातन मूल्यों ,अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को छोड़ ना पाए और अपने नए देश का नाम बांग्लादेश ,राजभाषा बांग्ला और रविंद्र नाथ टैगोर की लिखित कविता "आमार सोनार बांग्ला" को देश का राष्ट्रीय गान बनाया।

भाषा का भ्र्म

पहले में प्रायःअंग्रेज़ी में लिखा करता था । फिर कुछ मित्रों ने राय दी कि हिंदी में लिखा करो तो बात दूर तक जाएगी । मेरे आरंभिक पढ़ाई दरअसल बड़ी भ्रमित करने वाली रही । मेरे किंडरगार्डन से लेकर दसवीं की पढ़ाई तक पिता जी का छह बार तबादला हो चुका था तो निरंतरता का अभाव था और अंग्रेज़ी हिंदी हर माध्यम से पढ़ते आये । पिता जी 1984 में जब सेवानिवृत्त हुए तबतक बाहरवीं में पहुंच चुके थे । मेरे घर मे हिंदी से ज्यादा उर्दू का उपयोग होता था । पिता जी और माँ दोनो उर्दू और फ़ारसी माध्यम से पढ़े थे और माँ तो मेरी रामायण भी उर्दू में गाती थी और इक़बाल की बड़ी मुरीद थी । हम घर मे ही काफी उर्दू शब्दो का इस्तेमाल किया करते थे । आज भी हम अपनी कलम दवात की पूजा में उर्दू में भी 'श्री राम' लिखते है । सन 78-79 की बात है एक बार फतेहगढ़ में किसी दुकान में मैंने जारबंध मांग लिए तो हैरान दुकान के मालिक ने मुझ पूछ लिया बेटा ये कहा से सीखा और प्रसन्न होकर कुछ टॉफी भी दे दी ।
खैर माँ मेरी थोड़ी सख्त मिजाज थी और मेरे बचपन की काफी राते उनके साथ अंग्रेज़ी सीखते गुज़री ।उनके साथ सोने का मतलब ,अंग्रेज़ी की परीक्षा और अक्सर गालो पर पड़ते तमाचे । बारहवीं की पढ़ाई के बाद मैंने मद्रास की और रुख किया । मद्रास एक ऐसी जगह है जहाँ हर गली नुक्कड़ में बड़े बड़े शशि थरूर है । शब्दो का ऐसा चयन कि बिना किसी शब्दकोष के पढ़ना समझना मुश्किल । मुझे लगा कि मुझे भी अब ऐसी ही अंग्रेज़ी बोलनी और लिखनी चाहिए । मैंने बड़ी मेहनत की और कुछ सफल भी हो पाया । मैंने अंग्रेजी में शब्दो को ढूंढ ढूढ़ के लिखना शरू कर दिया । एक बार एक किसी लायंस क्लब के समारोह में मद्रास के आयकर आयुक्त ने मेरी अंग्रेजी की तारीफ कर दी और मुझे लगा कि अब और मेहनत की जानी चाहिए और कई शब्दकोष खरीद डाले । उसी बीच मैंने सुना सुधा मूर्ति को । वो कहती थी कि "वार्त्तालाप में हमेशा भाषा का इस्तेमाल इस प्रकार से होना चाहिए कि लोग आप की बात समझ सके। बहुत क्लिष्ट शब्दो के चयन से लोग आपकी तारीफ तो करते है पर आपकी बात पूरी तरह से समझ नही पाते । ' मुझे उनकी बात बहुत समझ आयी । दूसरी बार एक व्यापारिक सभा मे मुझे अब्दुल कलाम से मिलने का मौका मिला । वे तब राष्ट्रपति नही थे लेकिन वे बहुत प्रभावी शिक्षक थे ।वे बहुत साधारण अंग्रेज़ी बोल रहे थे लेकिन उसका प्रभाव बड़ा प्रबल था। मै उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ और इन दोनों घटनाओ के बाद मैंने भी क्लिष्ट अंग्रेज़ी बोलने का प्रयास छोड़ दिया ।
मित्रो के सलाह के बाद मैंने जब हिंदी में लिखना शुरू किया तो पुनः हर दूसरे शब्द उर्दू के ही निकलने लगे । बड़ी मुश्किल से शब्दों को खोज खोज के जब ये कहने की स्थति में आये कि अब मैं हिंदी में भी लिख सकता हूँ ,तो गलती से जयशंकर प्रसाद और मुशी प्रेमचंद को पढ़ लिया और फिर से दिमाग के सारे तार खुल गए । एक एकदम सरल और सामयिक , दूसरे ऐसे की एक एक पन्ने को पढ़ने के बाद आप सोच में पढ़ जाए। मैंने आचार्य चतुरसेन की एक किताब "वयम रक्षाम" पढ़ी थी ,उसमें लिखी हिंदी तो अभूतपूर्व थी । मैंने बहुत सी अंग्रेज़ी किताबें पढ़ी है । बल्कि कहिए तो बचपन किताबे पढ़ने में ही बीता लेकिन इतना उत्कृष्ट ज्ञान और भाषा का मुझे भान ही नही था । हमने अपने हिंदी के लेखकों को पढ़ना ही छोड़ दिया है । हमे लगता है उनको पढ़ना पिछड़ेपन की निशानी है और मुझे लगता हम कही गलत दिशा में जा रहे है । अब मैं प्रयास करता हूँ ज्यादा से ज्यादा हिंदी में लिखूँ , हिंदी को समझूं । अंग्रेजी को भारत मे कौशल के तर्ज पर ही पढ़ना चाहिये । भाषाई संस्कृति हमेशा देशी ही होनी चाहिए

Sunday, May 2, 2021

भारत के प्रधानमत्री

भारत में अभी तक १४ प्रधानमत्री  हो चुके है जिसमे से १२ को मैंने अपने जीवन काल में देखा है।  मेरे काल की पहली प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी  थी | वे बहुत सौम्य , नियंत्रित वाणी एवं रमणीय महिला थी | इन्दिरा जी को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही "प्रियदर्शिनी" नाम दिया  था | सोमरविल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में अध्ययन  के दौरान उनकी मुलाकात फिरोज़ गाँधी से  हुयी जो लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में अध्ययन कर रहे थे। 1942 को आनंद भवन, इलाहाबाद में एक निजी समारोह में इनका विवाह फिरोज़ गाँधी  से हुआ और इन्दिरा को उनका "गांधी" उपनाम  विवाह के पश्चात मिला | ऑक्सफोर्ड से भारत वापस आने के बाद वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल हो गयीं। 1950 के दशक में वे अपने पिता के भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में कार्य करती रही  | अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1964 में उनकी नियुक्ति एक राज्यसभा सदस्य के रूप में हुई। इसके बाद वे लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मत्री बनीं।लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद तत्कालीन काँग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक रहे। गाँधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। 1971 के भारत-पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में उन्होंने सन् 1975 में आपातकाल लागू कर दिया | 

सत्तर के दशक में देश में जब आपतकाल लग चूका था , श्रीमती इंदिरा गाँधी  से पहला परिचय स्कूल के दौरान हो गया। हुआ यूं कि एक दिन स्कूल में पुलिस आ गयी और बच्चो को एक क्रम में खड़ा कर दिया गया । साथ में सफ़ेद कोट पहने हुए डॉक्टर सरीखे लोग थे। वे बच्चो के हाथ में एक पिस्तौलनुमा वस्तु के आकार से हाथ में कुछ लगा रहे थे और बच्चे रोते चले जाते थे।  मेरा में साथ भी ऐसा ही हुआ ,बिलबिलाते रोते जब हम घर पहुंचे तो पता चला कि वो टीका था जो बिना परिवार की अनुमति के हमें लगा दिया गया था ।  मेरे दाहिने हाथ में आज भी उसके निशान आपातकाल की याद दिलाती है। इंदिरा जी के छोटे बेटे संजय का उन दिनों राजनैतिक धड़े में बड़ा आतंक था लेकिन आम जनता संजय की बड़ी दीवानी थी। एक बार संजय गाँधी आये और गोरखपुर के सिविल लाइन्स के स्टेडियम में उनके सम्बोधन का कार्यकम था। उनके आने से पहले शहर की मुख्य बाजार गोलघर की सारी इमारतों को एक रंग में रंग दिया गया। मैंने सरकारी अधिकारियो में ऐसा खौफ आज तक दुबारा कभी नहीं देखा।  संजय ने देश में जनसँख्या कम करने के नाम पर ना जाने कितनो की जबरिया नसबंदी करा दी जिसका कोई हिसाब नहीं । किशोर कुमार के रेडियो पे गाने पर प्रतिबंध लगा दिया , इंद्र कुमार गुजराल को बेज़्ज़त कर घर से भगा दिया। तुर्कमान गेट में मुस्लिम बस्ती को रातो रात खाली करा दिया। आज की मशहूर अभिनेत्री सारा अली की नानी , और अमृता सिंह की माँ रुकसाना सुल्तान उनकी अभिन्न थी जो उनके सारे क्रिया कलापो में शामिल रहती थी। ऐसे ना जाने कितने किस्से हम रोज सुना करते थे।  मुसीबत तो तब आयी जब मेरे बड़े भांजे के जन्मदिन के अवसर पर आवेश में आकर पिता जी ने इंदिरा जी के खिलाफ कुछ कटु बाते कह दी और महफ़िल में मौजूद कुछ कांग्रेस्सियो ने पुलिस में उनकी शिकायत कर दी। अगर वे सरकारी अधिकारी ना होते तो उन्हें जेल जाने से कोई बचा नहीं सकता था। 

खैर इंदिरा जी ने अचानक आपातकाल ख़त्म कर अचानक चुनाव की घोषणा कर दी और जय प्रकाश जी के नेतृत्व में कांग्रेस (O) , सोशलिस्ट पार्टी , लोकदल ,और जनसंघ का विलय हो नये दल जनता पार्टी का गठन हुआ ।बाबू जगजीवन राम , नंदनी सतपथी , हेमवंती नंदन बहुगुणा सरीके दिग्गज इंदिरा कांग्रेस को छोड़ जनता पार्टी में शामिल हो गए। चुनाव के दौरान इंदिरा जी खिलाफ भारी नाराज़गी थी और हम बच्चे  बक्शीपुर के चौराहे पर हलधर किसान का बिल्ला सभी लोगो को बांटेते थे और शिक्षित करते थे की मोहर इसी पर लगाइये ।  इंदिरा जी चुनाव हार गयी और मोरार जी देसाई सन १९७७ में भारत के नए प्रधानमंत्री बने।


मोरारजी बहुत ही शिक्षित और चतुर राजनैतिज्ञ थे। वे राज्य सिविल सर्विस पास कर गुजरात के गोधरा के डिप्टी कलेक्टर बने लेकिन १९२३ के हिन्दू मुस्लिम दंगे में अपने  ऊपर पक्षपात का आरोप लगने से छुब्ध पद से त्यागपत्र दे दिया और गाँधी जी के आवाहन पर स्वतन्त्रा संग्राम में शामिल हो गए। १९३४ और १९३७ में जब गुजरात राज्य का चुनाव हुआ तो देसाई चुनाव जीत राज्य के राजस्व और गृह मंत्री बन गए और भारत आज़ाद होने के बाद १९५२ में वे बॉम्बे राज्य के मुख्य मंत्री बने । १९५६ में जब भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात हुई तो मोररजी उसके खिलाफ थे।  वे बॉम्बे को केंद्र शासित बनाये जाने के पक्ष में थे।  १९५६ में मराठी राज्य की मांग करने वाले सेनापति बापत द्वारा मोर्चा निकाले जाने पर उन्होंने गोली चलाने का आदेश दे दिया , जिससे ११ साल की बच्ची समेत 105 लोग मारे  गए। इसके बाद ही नेहरू जी की केंद्र सरकार ने मराठा राज्य महाराष्ट्र के गठन के लिए सहमति दे दी , जिसकी राजधानी मुंबई बनायीं गयी और मोरार जी को केंद्र में  वित्त मंत्री बना दिया गया । नेहरू जी के मृत्य के बाद मोरारजी प्रधानमंत्री बनने के प्रबल दावेदार थे ।  शास्त्री जी के मृत्य के बाद मोरारजी ने  पुनः प्रधानमंत्री बनने के लिए बड़ा ज़ोर लगाया लेकिन बाजी इंदिरा जी के हाथ लगी और वे  प्रधान मंत्री बन गयी।  मोरारजी को वित्त मंत्री एवं उप प्रधानमंत्री बनाया गया । किन्ही कारणो से जब इंदिरा जी ने उनसे वित्त विभाग वापस ले लिया तो उन्होंने कांग्रेस से त्याग पत्र दे दिया।

उन्हें मौका मिला आपतकाल के बाद जब वे १९७७ में देश के चौथे प्रधानमंत्री बने। उस समय उनकी आयु  ८१ वर्ष हो चुकी थी।  प्रधान मंत्री बनते ही उन्होंने इंदिरा गाँधी द्वारा किया बयालीसवाँ संशोधन को पुनः संशोधित किया जिससे भविष्य में कोई भी पुनः आपातकाल ना लगा सके। भारतीय संविधान का ४२वाँ संशोधन इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व वाली कांग्रेस द्वारा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आपातकाल  के दौरान किया गया था। यह संशोधन भारतीय इतिहास का सबसे विवादास्पद संशोधन माना जाता है। इस संशोधन के द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की उन शक्तियों को कम करने का प्रयत्न किया गया जिनमें वे किसी कानून की संवैधानिक वैधता की समीक्षा कर सकते हैं। इस संशोधन को कभी-कभी 'लघु-संविधान' (मिनी-कॉन्स्टिट्यूशन) या 'कान्स्टिट्यूशन ऑफ इन्दिरा' भी कहा जाता है।

हालाकि मोरारजी ने पूरा प्रयास किया फिर भी वे संविधान की मूल प्रस्तावना को उसके वास्तविक स्वरुप में लाने में विफल रहे।  संविधान के मुख्य निर्माता डॉक्टर अंबडेकर  भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को संविधान के प्रस्तावना  में डालने के विरुद्ध थे।  १९४६ के संविधान सभा के अधिवेशन की बहस में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा -  " What should be the policy of the State, how the Society should be organised in its social and economic side are matters which must be decided by the people themselves according to time and circumstances. It cannot be laid down in the Constitution itself, because that is destroying democracy altogether. If you state in the Constitution that the social organisation of the State shall take a particular form, you are, in my judgment, taking away the liberty of the people to decide what should be the social organisation in which they wish to live. It is perfectly possible today, for the majority people to hold that the socialist organisation of society is better than the capitalist organisation of society. But it would be perfectly possible for thinking people to devise some other form of social organisation which might be better than the socialist organisation of today or of tomorrow. I do not see therefore why the Constitution should tie down the people to live in a particular form and not leave it to the people themselves to decide it for themselves."

इंदिरा गाँधी द्वारा किया बयालीसवाँ संशोधन ने प्रस्तावना के मूल भाव को ही बदल आंबेडकर के इस चिंतन पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया और इसे उसके वास्तिक रूप में ना ला पाना मोरारजी की जनता पार्टी की एक हार थी। लिहाजा आज भी ये देश के लिए नासूर बना हुआ है क्योकि भारत की सामाजिक परिवेश - और संविधान की मूल भावना में कोई तारतम्य रह ही नहीं गया है।

मोररजी के प्रधानमंत्री काल का और जो मुझे याद है ,वो है विदेश मंत्री बाजपेयी जी का सयुंक्त राष्ट्र के ३२ अधिवेशन में हिंदी में दिया भाषण , उनके द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियो को देश निकाला और RAW को ख़त्म करने का कार्य और ये कि साथ ही ये की वे अपने मूत्र द्वारा खुद की चिकत्सा करते थे। सन १९७९ में  मधु  लिमये , कृष्णा कांत ,और  जॉर्ज  फर्नांडेस ने जनता पार्टी के जनसंघ धड़े के सदस्यों के राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के सदस्य होने पर आप्पति जताई।  उसके बाद ही  राज नारायण और चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गयी | इसके पश्चात्  २८ जुलाई १९७९ में इंदिरा कांग्रेस के समर्थन से चौधरी  चरण सिंह भारत के पांचवे प्रधान मंत्री बने और मोरार जी के राजनतिक जीवन का पटाछेप हो गया |

 

क्रमश..

 


Tuesday, July 7, 2020

India needs to review its 2013 cyber security policy

India is among the top 10 countries facing cyber-attacks. These incidents have increased manifold during the lockdown period — almost three times increase in cases of phishing, spamming, and scanning of ICT systems, particularly of critical information infrastructure. There is a significant increase in incidents relating to hacking, injecting malware through spam emails, and other forms of exploiting vulnerabilities. There was an almost 56% rise in malicious traffic on the internet during the lockdown period also on account of the culture of work from home. This might be just the beginning which suggests even more increased interest in exploiting cyber breaches.

 

A piece of news daily too reported massive “denial of service” attacks on the financial institutions in the country which, however, could not be verified. The border stand-off has further increased worries about enhanced cyber attacks from China and its close allies. Several advisories have been published by the Indian Computer Emergency Team and media about possibilities of cyber-attacks from China, though not much malicious activity has been observed.

Many cyber hackers — state, non-state, professional, freelancer’s groups, so-called “anonymous groups” — operate worldwide and conduct attacks internationally. Approximately more than one-third of all cyber-attacks worldwide are launched from China. They have one of the largest military groups of cyber experts in the world. Countries like North Korea and Pakistan are also very active on their own and work in close collaboration with the Chinese. These countries have been accused of perpetrating state-sponsored attacks for a variety of purposes.

 Recently, the Australian Prime Minister expressed concerns over Chinese cyber attacks. About 38% of Advance Persistent Threat Vectors like APT40, APT3, APT10, and APT17 have been reported to be developed and deployed by China for espionage, stealing of data, and IP. Some APTs are general-purpose tools but others are customized for specific countries and purposes. The techniques and tools like APT1, APT3, APT10, APT15, APT17, APT26, etc have been deployed against India too. The Chinese are in the process of developing technology to penetrate the internet through satellite channels. Pakistan too has deployed APT 36 targeting Indian entities. The role of a hacker group called LAZARUS is well known in carrying out attacks on financial targets in India, Bangladesh, and other South Asian countries.

The National Cyber Security Policy, 2013, was the first comprehensive document brought out by the government. The policy had several action points. Important ones relate to setting up a National Cyber Security Center, Test Infrastructure, Malware Monitoring & Cleaning Center, National Critical Information Infrastructure Center, etc.

The government had announced that a new Cyber Security Policy, 2020, will be brought out. Certainly, there are a lot of gaps with regard to the resilience of infrastructure. However, let us not overestimate Chinese capabilities and underestimate ours. Their software codes are not so sophisticated, but they are successful due to legacy systems deployed in the country. Technologies like artificial intelligence, machine earning, internet-enabled devices, and big data have complicated the cyber attack ecosystem. Nevertheless, agencies in the country are geared up and capable to address challenges. Indian entities have successfully defended large cyber attacks from China and other countries. We, however, need to review the 2013 policy and take corrective steps to strengthen the system to enhance the resiliency of cyber-infrastructure in the country, particularly critical infrastructure. The draft of the policy, considering technological innovations and resulting complexity in cyber incidents, should be announced.

The National Cyber Coordination Centre urgently needs a significant upgrade in all aspects, including technology and manpower. Time is of the essence. The role of the national cyber-security coordinator may also need to be reviewed regarding his effectiveness in comprehensively coordinating cyber-security issues. Maybe he needs to be empowered. There must be a single-point of responsibility at the central level.

Proper coordination is needed between the coordinator and the respective regulators. We are in a connected world. More and more activities will be carried on the internet and public networks. The heterogeneity of devices and software will increase with more built-in vulnerabilities. Tech and data, due to their very nature, will get more and more geopolitical attention. We have set a target of a US$ 5 trillion economy. It is better to be prepared now with respect to policy, legal framework, monitoring infra, and technology to emerge as safe a and secure digital country.


Thursday, April 16, 2020

Hinduism Through Its Scriptures

My earliest memory of ever having heard anything from the scriptures was after a wedding when there was a fire sacrifice being performed and the priests were chanting with movements of hands, what is called Shanti Path, or Shanti Mantras.
And a lot of them like Salvation and Sukhinah Santu, they were about wishing for everyone's happiness and peace. When I began to understand, what remained with me was not just the words and the meanings, but also the sounds, and how the impressions of the sound and the entire ambiance created a profound sense of harmony.
The scripture is not just a material physical thing, or just the words, it is also performance. It is also how people use their own imagination to interpret the sacred.
What has come to be called the Hindu tradition is a rich fabric of civilization, interweaving numerous threads and hues of religious life. The intricate blend of Aryan, Dravidian, and various tribal cultures has resulted in a rich variety of religious practices, a diverse region of many peoples and languages, and various forms of worship through the many manifestations and images of the divine.

This dynamic network of religious currents is, therefore, better represented in the plural as Hindu traditions. Formulations and reformulations of these currents have continued through the centuries. And they continue today as Hindus in communities throughout the world reshape traditions in the context of their contemporary societies. While Hindu currents of thought and practices have flourished on the Indian subcontinent for at least three millennia, the concept of Hinduism as a world religion, as a unitary package of beliefs and rituals akin to Christianity, or Islam, or Buddhism, emerged only in the 19th-century colonial context via processes much debated in scholarship over the past three decades.

While there are many divine figures, each with many names and forms, a large number of Hindu worshippers would insist that this many-ness must be understood in relation to a radical one-ness, expressed through the concept of Brahman, understood as the reality that transcends all personal names. This one reality, call it Brahman the divine or the real, can be perceived in and through an infinite number of names and forms. The earliest literary sources of the Hindu tradition are the Vedas, literally knowledge, a body of ancient hymns and chants composed in the second millennium BCE, sometimes referred to as Shruti, meaning literally what is heard.

The Vedas were not read on the page, but recited orally in metered verse. The Upanishads consider the end of Vedas and dating largely from the eighth to the sixth centuries BCE are their wisdom literature and take the form of dialogues between teachers and students, reflecting about the origin, basis, and support of the universe.

  • What is the cause?
  • What is Brahman?
  • Whence are we born?
  • Whereby do we live?
  • On what are we established?
So asks the seeker in the Svetasvatara Upanishad.

The teachers of the Upanishads point the way to a profound realization, that atman, the innermost self or breath of life, is identical with Brahman, the ultimate reality that pervades the entire universe.
Along with these texts of philosophical reflections, another set of texts called the Dharmashastras were composed in the centuries before the common era.

These focused on the moral and social duties of individuals based on their place in society and their station in life. The philosophical reflections of the Upanishads and the moral injunctions laid out in the Dharmashastras were woven into two epics, the Ramayana and the Mahabharata.

The mythological compendia called the Puranas, which have been the core texts of Hindu since the early centuries of the common era, contain hundreds of narratives about divine manifestations and form the basis of varied religious expressions through ritual, pilgrimage, music, and dance. Numerous retellings and spin-offs of the narratives contained in the epics and the Puranas are also found in popular ernacular texts that serve as scriptures for different groups, especially those outside of elite communities.

Daily worship often offered to images in a household shrine might be directed to a particular god, goddess, or related figure with whom an individual or family has a special affinity. Hinduism is closely identified with India, where more than 95% of the world's Hindus live. In the millennia prior to widespread Euro-American contact and colonial rule, religious identities throughout South Asia tended to be articular, context-sensitive, and somewhat fluid. Hindu, as an identity marker, grew more significant as its scope both expanded and contracted during the struggle for independence from Britain.

The British partition of Bengal in 1905, and later of India in 1947, into the Hindu majority and Muslim majority areas generated a linking of religious and national identities. However, there are Hindu communities in virtually every part of the world today.

The Surya Siddhanta and Modern Physics: Bridging Ancient Wisdom with Scientific Discovery 🌌📜⚛️

  The Surya Siddhanta, an ancient Indian astronomical treatise written over a millennium ago, is a fascinating work that reflects the advanc...