Friday, October 29, 2021

नीलकण्ठ मंदिर

नीलकण्ठ मंदिर -

दो दिन पहले बाँदा जाना हुआ । वहाँ जिलाधिकारी से वार्ता के दौरान कालिंजर किले के बारे में जानकारी मिली । बाँदा जिलें में विंध्य पर्वत पर स्थित यह दुर्ग विश्व धरोहर स्थल खजुराहो से 98 किलोमीटर दूर है। इसे भारत के सबसे विशाल और अपराजेय दुर्गों में गिना जाता रहा है। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं। इनमें कई मन्दिर तीसरी से पाँचवीं सदी गुप्तकाल के हैं।


किले के पश्चिमी भाग में कालिंजर के अधिष्ठाता देवता नीलकण्ठ महादेव का एक प्राचीन मन्दिर भी स्थापित है। इस मन्दिर को जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाते हैं। रास्ते में अनेक गुफाएँ तथा चट्टानों को काट कर बनाई शिल्पाकृतियाँ बनायी गई हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह मंडप चंदेल शासकों की अनोखी कृति है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर परिमाद्र देव नामक चंदेल शासक रचित शिवस्तुति है व अंदर एक स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर के ऊपर ही जल का एक प्राकृतिक स्रोत है, जो कभी सूखता नहीं है। इस स्रोत से शिवलिंग का अभिषेक निरंतर प्राकृतिक तरीके से होता रहता है। बुन्देलखण्ड का यह क्षेत्र अपने सूखे के कारण भी जाना जाता है, किन्तु कितना भी सूखा पड़े, यह स्रोत कभी नहीं सूखता है।चन्देल शासकों के समय से ही यहाँ की पूजा अर्चना में लीन चन्देल राजपूत जो यहाँ पण्डित का कार्य भी करते हैं, वे बताते हैं कि शिवलिंग पर उकेरे गये भगवान शिव की मूर्ति के कण्ठ का क्षेत्र स्पर्श करने पर सदा ही मुलायम प्रतीत होता है। यह भागवत पुराण के सागर-मंथन के फलस्वरूप निकले हलाहल विष को पीकर, अपने कण्ठ में रोके रखने वाली कथा के समर्थन में साक्ष्य ही है। मान्यता है कि सागर-मन्थन से निकले कालकूट विष को पीने के बाद भगवान शिव ने यहीं तपस्या कर उसकी ज्वाला शान्त की थी। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला कार्तिक मेला यहाँ का प्रसिद्ध सांस्कृतिक उत्सव है।

यह दुर्ग एवं इसके नीचे तलहटी में बसा कस्बा, दोनों ही महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर हैं। यहाँ कई प्राचीन मन्दिरों के अवशेष, मूर्तियाँ, शिलालेख एवं गुफाएं आदि मौजूद हैं। इस दुर्ग में कोटि तीर्थ के निकट लगभग २० हजार वर्ष पुरानी शंख लिपि स्थित है जिसमें रामायण काल में वनवास के समय भगवान राम के कालिंजर आगमन का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार श्रीराम, सीता कुण्ड के पास सीता सेज में ठहरे थे।  इस दुर्ग का विवरण अनेक हिन्दु पौराणिक ग्रन्थों जैसे पद्म पुराण व वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है। इसके अलावा बुड्ढा-बुड्ढी सरोवर व नीलकंठ मन्दिर में नौवीं शताब्दी की पांडुलिपियाँ संचित हैं, जिनमें चंदेल-वंश कालीन समय का वर्णन मिलता है। शेरशाह सूरी की 1545 में इसी दुर्ग में मृत्य हुई थी । 1812 में अंग्रेजों के कब्जे के बाद दुर्ग में स्थित बहुत सी इमारतों को ध्वस्त कर दिया गया ।

पुरातत्त्व विभाग ने पूरे दुर्ग में फ़ैली, बिखरी हुई टूटी शिल्पाकृतियों व मूर्तियों को एकत्रित कर एक संग्रहालय में सुरक्षित रखा हुआ है। गुप्त काल से मध्यकालीन भारत के अनेक अभिलेख संचित हैं। इनमें शंख लिपि के तीन अभिलेख भी मिलते हैं।

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